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________________ - -- - - ૪૨ प्रवचनसार कर्णिका वारह व्रतोंमेले पक-दो पालते हैं, वे धर्माधर्मी कहलाते । हैं । तुम्हारा नंवर किसमें है ? दुधाला ढोर खीलाले रंधे रहते हैं। लेकिन हिराये । ढोर जहां तहां भटकते हैं। व्रतधारी आत्मा दुधाला ढोर जैसा कहलाता है और व्रतरहित आत्मा हिराया ढोर के समान कहला जाता है । अब तुम्हें कैसा कहलाना है? देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारक इन चार गतियों में .. से तुम्हें कौनसी गति चाहिये ? साहेव देवलोक चाहिये। क्यों कि वहां सुख बहुत है। महानुभाव, तुमको खबर नहीं लगती कि देवलोक का सुख भी अस्थायी है । पसे सुख को प्राप्त करके क्या करोगे? अरे एसे सुखकी. इच्छा करो कि जो आकर के फिर न जाय और अशाश्वत न हो शाश्वत हो । शाश्वत सुख तो मोक्षगति के सिवाय और कहीं भी नहीं है इसलिये मोक्षा मिलापी वनो। नरक गति में भयंकर वेदना है। पानी मांगो तो 'पानी भी नहीं मिलता है। भूख लगने पर खाने को नहीं मिलता है। आँख बन्द करके खोलो इतना भी सुख नहीं मिलता है। वहां तो दुःख, दुःख और दुःख । परमाधार्मी देवता शरीर के राई के समान टुकड़ा कर डाले तो वह भी सहन करना पड़ता है। फिर भी वह शरीर पारा के समान फिरसे इकट्ठा हो जाता है। भवि आत्मा यह वर्णन सुनकर के पापों से बचें इसी लिये वीतराग प्रभुने अपने आत्मा का उपकार करने के लिये उसका वर्णन किया है। पाप नहीं करना और अगर मान लो करना भी पडे तो रचपच के नहीं करना। कंपते.. कंपते धूजते धूजते पाप होता है। ............ ... हो । शाश्वतकर न जाय और यौर कही
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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