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________________ व्याख्यान-चौथा : २७. न वीतराग का सेवक दोनों प्रकार के मिथ्यात्व का त्यागी होता है। अठारह पापस्थानकों में से सत्रह पाप स्थानकों का वाप मिथ्यात्व है। संसारी सुखको सच्चा सुख मानना मिथ्यात्व है। समकिती का धन देव गुरु. धर्मका धन है। धन नाशवन्त है, पुण्य पुरा होने पर ये चला जानेवाला है। इसलिये धनको धर्मकार्य में वापरना चाहिये । अर्थात् धनका उपयोग धर्मकार्यमें करना चाहिये। सिफ संसारी कामोंमें ही धनका उपयोग करोगे तो कर्म ...ही बंधनेवाले हैं, परन्तु धर्मकार्यों में धनका उपयोग करने से यश भी बढ़ेगा। . समकिती आत्मा घरमें आई हुई नववधू से कहती . है कि तुम संसार के काम कम करोगी तो चलेगी परंतु.. धर्मकी साधना तुम्हें पूरेपूरी करना है। मेरी आज्ञा नहीं मानोगी तो चलेगा किन्तु वीतराग की आज्ञा नहीं मानो तो नहीं चलेगा। .. एसी वात कौन कह सकता है ? जिसके गोम रोममें .. . वीतराग का धर्म व्याप्त हो वही कह सकता है। घर में भी सुखका अनुभव कव हो सकता है ? पूरे परिवार में धर्मका निवास हो तभी । पापका पञ्चक्खाण नहीं करना . ही अविरति है। . .. पूरे भव में नये आयुष्य का एक ही दफे वन्द होता है। चालू उदयमें रहते आयुष्य के दो भाग बीतने के वाद" ... अथवा मृत्युकाल के अन्तर्मुहूर्त पहले नये आयुष्य का वन्ध : पडता है। "प्राये सुरर्गात साधे पर्वना दिवसे रे” इस-.. - लिये पर्व के दिन पापारंभ से अलग रहकर धर्माराधन में: . विशेष प्रवृत्ति वान बना रहना चाहिये ।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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