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प्रवचनसार कर्णिका परन्तु मार्ग में खूब वर्षा होने से राजदूत को एक पांथशाला में तीन दिन तक रुकना पड़ा। चौथे दिन अविरत प्रवास करके दशवें दिन मध्याह्न में राजदूत ने पाटण राजभवन में पहुंचकर गुर्जरेश्वर को सन्देश दिया । सन्देश पढ़ने के वाद गुर्जरेश्वर ने जाने की तैयारी की । इस तरफ एक संध्या समय महामन्त्रीश्वर की तवियत वहुत विगड़ने लगी। राजवैद्य ने खूब प्रयत्न किया मगर निष्फल गया । और रात के ग्यारह बजे महामन्त्रीश्वर की अमर आत्मा इस नश्वर शरीर का त्याग करके चली गयी। छावणी में . हाहाकार मच गया ।
इस तरफ साधुवेष धारक वंठ को विचार आया कि जिस वेष को गुजरात के महामन्त्रीश्वरने नमस्कार किया मैं अब उस वेष को कैसे छोड़ सकता हूं। बस ! भावना.. की शुद्धि से द्रव्यवेय भावसाधुपने को प्राप्त हो गया । और द्रव्यमुनि मिटकर वह सच्चा भावमुनि हो गया । यह है जैनशासन को प्राप्त हुई अंतिम भावना का . "हूबहू चित्र ।
भूतकाल में जैनराजा युद्ध में भी साधुवेष को साथ में रखते थे । क्यों कि अंतिम समय की भावना उस वेष.को देख कर विगड़ती नहीं थी। इसलिये साधुवेष को साथ में रखते थे।
तुम्हारे घर में साधुवेष है कि नहीं? ना जी। क्या है ? गुरु महाराज के चित्र हैं ? नाजी। तो राग उत्पन्न करें एसे नटनटियों के चित्र हैं ? हांजी। ..
फिर भी तम श्रावक!!! . . . . . . . • भाइयो विचार करो। ...