SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार कणिका . - - विगड़ने लगी। शरीर में क्षीणता बढ़ने लग । उनको लगा कि अब मैं वचंगा कि नहीं? इस विचार के आने के साथ में ही दिल में एक भावना उत्पन्न हुई। लेो पूरी कैले हो? दोपहर को महामन्त्री के चारों तरफ सेवक : वर्ग और असिस्टेन्ट मन्त्री वैठे थे। सभी उस महामन्त्री के स्वास्थ्य की चिन्ता में तल्लीन थे। सभी की नजर - महामन्त्री की भव्य मुख मुद्रा पर थी। वहां एक आश्चर्य .. हुआ । महामन्त्री की आँखों में से मोती की तरह अश्रु. विन्दु टपकने लगे। दूसरे मन्त्रियों ने पूछा हे महामन्त्री, आपको आंसू क्यों आये? अगर किसी का कुछ अपराध हो तो वोलो, हुक्म करो। महामन्त्रीने गद्गद कंठ होकर कहा "हे महानुभाव, दूसरा तो कुछ नहीं किन्तु, एक अंतिम इच्छा सता रही है। कौन सी इच्छा ? गुरु महाराज के दर्शन करने की। क्योंकि अब इस . काया का भरोसा नहीं हैं। अच्छा महाराज, हो जायेंगे। अभी हाल साधु महात्मा की खोज करने के लिये सेवकों को रवाना करते हैं। उस तरह और भी कुछ दूसरी उपयोगी बातें करके सब खड़े हो गये । और दूसरे तम्बू में सभी अग्रणी इकट्ठे हुये । विचार विमर्श हुआ कि अब क्या करना चाहिये । अभी के अभी साधु महात्मा कहां से मिलेंगे? इतने में एक मागे मिला । एक वंठ जाति के आदमी को साधु का वेष पहराकर क्या करना वह सव उसको सिखा दिया और उस वेप:धारी को पास के जंगल में से छावणी की और रवाना किया। वेषधारी महात्माने महामन्त्री के खंड में पधारकर धर्मलाभ
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy