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________________ - ४४४ प्रवचनसार कणिका (६६) संसारकी प्रवृत्तियाँ जहर डाले हुये लाइ (लड्डे) जैसी हैं। . (६७) पाँच महापापोंको भोगनेवाले की अपेक्षा भोगने लायक माननेवाला अधिक पापी है। (६८) जवसे स्वाद वढा तवसे रोग बढे और जवसे रोग वढे तवसे डॉक्टर चढे । और जवसे डॉक्टर वढे . तवसे इस्पीताल वढी । (६९) धर्म गुरुओंको जिनेश्वर भगवंत को आज्ञा को दूर करके जमाना के पीछे जाना ये भयंकर शासन द्रोह है। " (७०) सत्यका सदा जय है। तो सत्यको से करके कल्याण साधने में क्या हरकत है ? -(७१) असत्य मार्गका सेवन करना नहीं और सत्यके सेवन से डरना नहीं। (७२) देहके सुखका लोभ ये सच्चे सुख को गवाने का रास्ता है। (७३) प्राणान्त में भी सत्यको तिलांजलि नहीं देना। और असत्यका आचरण नहीं करना । (७४) निरन्तर चलते गाडेके पहिया घिसा करके नकामा (बेकार) हो जाते हैं । इसलिये तेल डाला जाता है। इसी तरह संयम की आराधना में काम देने वाला ये शरीर काम करता हुआ अटक नहीं जाय इसलिये आहार देना किन्तु स्वादके लिये नहीं। (७५) स्वादसे इसके अंदर लयलीन बनके भोजन करने वैठा हुआ मनुष्य मोहराजाके हाथ से मरने वैठी है। (७६) टांटिया तोड़के यानी पैर तोड़के जैसे पैसा कमाते हो उसी तरह जो धर्म करने लगे तो मोक्ष निकट है।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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