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________________ ४३० प्रवचनसार कर्णिक लक्ष्मीकुलकी उस बगियामें एक:पुष्प ये महकाथा ... वायु गतिले भी चंचलथा गंगासे भी शीतल था ... भगवती प्यारा नाम दियाथा गुरुवरके परिवारने वन्दे गुरुवरम् ।। बड़े प्यारसे वचपन वीता धीरेधीरे यौवन आया कन्याओंने वरमालाले जीवनसाथी बनाना चाहा जीवननैया डोल रहीथी भवसागर तूफानमें वन्दे गुरुवरम् । ५। जलकीड़ायें करते थे गुरु फतहसागर तालमें सदाघूमने फिरने जीते साँझ-सवेरे नाँवमें डगमग डगमगनैया जैसा जीवन भी असार हैं। वन्दे गुरु वरम् । ६। अश्चक्रीड़ाये करते करते रोज बगीचे जाते थे जंगल-जंगल खेत-खेतमें गुरुवर हरदम जाते थे अश्वगतीसे वीत रहा हे जीवन मेरा व्यर्थ है वन्दे गुरुवरम् । ७ । दोहा धनदौलत वैभव था पर मनकी शान्ति नहीं थी खेलकूदमें वचपत वीता यौवन बीता जाये ।१। पूर्वजन्मके अष्टकर्मले छुटकारा कैसे होगा साँझ-सवेरे चिन्तन चलता कब मैं दीझा लूँगा।२ . ढाल दूसरी गीत ............. तर्ज (रातभरका है महिमा अन्धेरा किसके रोके रुका है सवेरा). मैं भी भटका हूँ. मोह अवरमें, एसाध्यान गुरुको है आया रामचन्द्र परिजी वचन से अपने मनको गरुने जगाया।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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