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________________ - सम्पादकीय = - इस रोकेट युगमें मानव चन्द्र पर जानेकी महेच्छा करता है, लेकिन उस मानवको यह पता नहि है कि मेरा अस्तित्व कहाँ तक इस विश्व के चौगान में है ? __यह ग्रन्थ सर्वको माननीय है। इसमें तत्त्वों की बातों को सरल बनाकर कथानकों से अलंकृत करके दी है, ताकी वांचक वर्ग शीघ्र तत्त्वों की समझ पा सकता है । एक ही व्याख्यान में अनेक विषयों की चर्चा एवं प्रासंगीकप्रवचन होने से वांचक वर्गको खूब खूव मझा आती है। यह हकीकत तो सिद्ध हो चुकी है कि गुजराती आवृत्ति छपते ही उसकी नकले. उपड़ने लगी, और हिन्दी आवृत्ति की मांगनी सामान्य जनता से लेकर प्रधानों ने भी की है। इस ग्रन्थमें जिनाज्ञा विरुद्ध एवं प्रवचनकार वात्सल्यनिधि पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय भुवनसूरीश्वरजी महाराज के आशय की विरुद्ध आ गया हो तो "मिच्छामिदुकढ़" पाठक वर्ग इस ग्रन्थ को पढ़कर कल्यान मार्ग में आगे बढे यही शुभाभिलाषा । वि० सं० २००५ महा सुद १३ दशा पोरवाड सोसायटी अमदावाद -७ । श्री जिनचन्द्र विजय
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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