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________________ - - - - : व्याख्यान-इकतीसवाँ . चारित्र मोहनीय कर्म के प्रवल उदयवालो को दीक्षा . उदय में ही नहीं भाती है। हंसने से और रोने ले मोह नीय कर्म वंधता है। - महापुरुष एक तो हंसते ही नहीं हैं और अगर हंसते . भी हैं तो सामान्य मुख मलकाते हैं। इतना ही हंसते हैं ज्यादा हंसने से खराब लगता है। .... दुःखके समय अशुभोदय की कल्पना करना, लेकिन दुःखको नहीं रोना । पापोदय की मुद्दत पूर्ण होते ह .. दुःख अपने आप चला जानेवाला है। परंतु दुःखकी बेला में हायबोय (हाय हाय) करने से दुःख का असर दूना हो जायगा। गुनहगार को लिपाही पकड़ के ले जाता हो तव गुनहगार छूट जानेका, भाग जानेका अगर प्रयत्न करे तो सजा दूनी भोगना पड़ती है और ऊपर से दंडा खाना पड़े । इसी तरह पूर्वभव में किए हुए पापरूपी गुन्हा से कर्मराजा तुमको शिक्षा (सजा) करने आये तव आनाकानी (हां-ना) किए बिना हंसते मुखले भोंग लो तब तो कुछ भी नुकशान नहीं आवेगा । नहीं तो परम्परा से गुन्हा . वढेगा और सजा भी वढेगी यह समझ लेना । दर्शनावरणीय कर्म का उदय निद्रा को लाता है । अधिक सोने से रोगिष्ट होता है। - कुलका अभिमान करने से भगवान महावीर स्वामी के जीवने मरीचि के भवमें नीचगोत्र कर्म बांधा था ओर इसीलिये देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षिमें वियासी दिन-रात . रहना पड़ा । तियासीवें दिन इन्द्र महाराजा की आज्ञा से .२६
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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