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________________ ३९२ प्रवचनसार कर्णिकाले एक समय अथवा अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्व क्रोड वर्ष तक। योगजन्य सुख यह वास्तविक सुख नहीं है, लेकिन सुखकी आमा है। पर्व तिथियों में आयुष्य का बंध पड़ता है इसलिये पर्व तिथियों में विशेष धर्म करना चाहिए एसी शास्त्राज्ञा है। संसारमें रहने पर भी वैराग्यभाव से रहनेवाले एक राजा का कितना महत्व वढ गया है यह नजरोसे देखने के बाद रानी चौंक उठी। अहा ! मेरे प्रियतम सेरे से विलकुल निराले हैं। दो सगे भाई थे! दोनों वैरागी थे। बड़े भाईने राज्यधुरा छोटे भाई को सोंप करके दीक्षा ले लो। दीक्षा लिये बारह वर्ष बीत गये। आज माई मुनि नगरी के उद्यानमें पधारे । यह समाचार सुनकर राजा वंदन करके घर आया । रातका समय था । अपनी प्रिय पत्नी के साथ राजा बैठा था । वातवात में राजाने कहा कि हे प्रिये ! मेरे भाईने दीक्षा ली थी उस वातको आज बारह वर्ष वीत गए । वह भाई मुनि उद्यानमें पधारे हैं। मैं वंदना करने गया था । लचमुच में उन्होंने तो तप करके काया को सुखा डाली है। क्या? तुम अकेले जाके आये ? साथमें सुझे नहीं ले गये? देखों ? सुनो! आवती काल सुवह में वंदन किये विना अपन को कुछ भी नहीं खाना है। ये मेरी प्रतिज्ञा। . एसी सख्त प्रतिज्ञा सुनके राजा प्रसन्न हो गया। . : वनवाकाल एसा वना कि रातको मूशलधार वरसाद
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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