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________________ - '३८० प्रवचनसार कर्णिका श्रद्धा की परीक्षा करने आया हुआ देवः सन्तुष्ट होके चला गया। नगरी के ऊपर उपद्रव आने से युग प्रधान श्रीभद्रबाहु 'स्वामीजी ने उबसग्गहरं स्तोत्र रचा था। उसके पसाय से उपलर्ग टल गया। उवसग्गहरं स्तोत्र का महिमा अपार है। इस महिमा को समझ के तुम भी इस स्तोत्र के गिनने वाले नित्य वनो । तो जीवन निरुपद्रवी बन जायगा । यह उवसन्गहरं अर्थ सहित प्रतिकमण सार्थ की। किताब में से देख लेना। काल काल में इस स्तोत्र का महिमा प्रवल है। ज्यादा नहीं तो सातवार इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करो । बालवय में दीक्षित वने साधु दोडे, रमें (खेलें) फिर भी यह सब उन की वालवय कराती है। यह देखके समझदार मनुष्य टीका नहीं करते हैं। जगत में अपना कोई दुश्मन हो तो उसके प्रति द्वेष नहीं करना चाहिये। द्वेप करने से प्रादेशि की क्रिया लगती है। किसी मनुष्य को अपने स्वार्थ खातिर दुःख हो एसा नहीं कहना चाहिये । और कहें तो परितापनी की क्रिया ‘लगती है। किसी जीव की हिंसा करने से प्राणातिपाती की क्रिया लगती है। जैनेतर शास्त्रों में हिंसा नहीं करने को कहा है। किन्तु हिंसा से बचने के लिये सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवशास्त्री तो जैनदर्शन में ही जानने को मिलता है ! अगर कोई देवी प्रसन्न हो के कहे कि मांगो। जो
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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