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________________ व्याख्यान-उनत्तीसवाँ ३७. : गरमी से कंटाल के आराम लेने के लिये थोडी देर ओटला पर खड़े रहे । सामने से जिसका पति वहुत वर्षों से परदेश था एली एक युवती इन तेजस्वी साधुको देख के मुग्ध वन गई। दासी को भेजके सुनिको आमन्त्रण ‘दिया । मुनिवर इस युवती के घर में आये । .. लेकिन कम नसीव पलमें इस स्त्रीने इनको फँसा लिया। .. और घर रख लिया । साधु अव संसारी बन गये । . . इनकी साध्वी साताको मालूम हुआ कि अरणोक मुनि गोचरी को गये थे लो अभी तक पीछे ही नहीं . फिरे । माता को खवर हुई। उनकी शोधमें माता निकल ‘पडों । पता नहीं लगा। दिन पर दिन बीतने लगे माता पुत्र को खोजने में पागल जैसी बन गई थी। . . .. एक दिन अरणीक मुनि और वह युवती गवाक्ष में चैठकर सोगठावाजी (चौसर) खेल रहे थे। वहां तो अरणीक. को अपनी माता की आवाज सुनाई दी। वह खड़ा हो गया । अरणीक अरणीक कहती माता । को देखा । वह खड़ा हो गया अपनी स्थितिका भान आया। गवाक्ष से नीचे उतरकर माता के पैरों में गिर के चौधार आंसू रोते रोते अरणिक ने क्षमा मांगी। “निरखी निज जननी ने त्यां तो .. .... थयेली. भूल समजाय । ... चरणे ढल्या मुनि निज माताने । करजो मुजने सहाय ॥" विलास में डूबे हुये पुत्रको माताने फिर गुरु के पास हाजिर किया । फिरसे दीक्षा दिलाई। . और अपनी भूलके कारण इन अरणीक मुनिने .
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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