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________________ - - ३७६ प्रवचनसार कर्णिका __ असार कायामें ले सारभूत धर्म साधना हो तभी आत्मा को मोक्ष हो सकता है। शरीर को कायम ( हमेशा) एक समान रखने की भावना को देशवटा (देशनिकाल) दो। खारे समुद्र में ले भी शृंगी मच्छ मीठा पानी पीता :है। उसो प्रकार दुर्गन्धी कायासे भी उत्तम धर्म का आराधना हो सकती है। अरणीक सुनि पिताके साथ दीक्षित हुये थे । अरणीक मुनिकी वाल उमर होने से पितामुनि अरणीक को गोचरी आदिको नहीं भेजते थे। सब खुद ही करते थे। परन्तु काल कालका काम करता है। उसी तरह अरणीक मुनि. के पिता देवलोक को प्राप्त हुये। अरणीक मुनिको पारावार दुःख हुआ। खूब घबराये।... अब क्या करना ? क्या होगा? एसी अनेक विचारधारा अरणीक सुनि कर रहे थे । अन्तमें समझमें आया कि "जानेवाले तो चले गये" अब क्या हो ? अव तो मुझे आराधना में लग जीना चाहिये। एसा विचार करके संयमकी आराधना में तल्लीन बने । ____ एक दिन अरणीक मुनि गोचरी को गये । गोचरी लाये बिना चले एसा नहीं था । इसलिये गोचरी को तो जाना ही पडे । कभी गये नहीं थे। आज पहला ही मौका था। " ..... वैशाख जेठ का असह्य ताप था। दोपहर को पैरमें फुल्ला उठे एसी गरमी थी। एसे समय में वाल दीक्षित अरणीक मुनि गोचरी को गये । युवानी की लालीसे वदन तेजस्वी था।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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