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________________ ३६० प्रवंचनसार कर्णि आराधना प्रवल थी। इस आराधना के प्रतापले जन ही सब जानने की शक्ति थी और रोना शुरू करते क्योंकि जन्म होने के साथ ही उस वालकने सुना था उसके पिताने दीक्षा ली थी, यह सुनते ही जाति स्म ज्ञान हुआ और स्वयं संयम लेनेका निर्णय किया। माता उनके प्रति समता और माया न बढ़े इसलिये लाग एक धारा छः महीना तक रोना चालू रक्खा । मात कंटाला आने लगा (माँ थक गई)। आखिर में माता वालकसे कंटाल गई। इतने में इसके पिता साधु अपने गुरुके साथ गों आए । माताने उनसे कहा कि अब तुम्हारे इस दी (पुत्र) को तुम रक्खो । मैं तो कंटाल गई। मुनिने : समय वालक का स्वोकार किया । क्योंकि गुरुने अ की थी कि आज जो भी वस्तु मिलें उसका तुम स्वीर कर लेना। यह वालक वही है जो शास्त्रों में ब्रजस्वामी नामसे प्रसिद्ध हुए। गुरु महाराजने उस बालकको पालके वड़ा करने लिये साध्वीजीयों को सौंपा । साध्वीजीयों के उपाश्रर यह वालक पालना में झूलने लगा। थाविकाओं ने : अच्छी तरहसे पाला । .. साध्वीयों के मुखसे सुनते ही वह वालक ग्य अंगका ज्ञाता बन गया । - पीछे से एसे शान्त और ज्ञानी पुत्रको ले जाने लिये माताकी इच्छा जागृत हुई। .........
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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