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________________ व्याख्यान - चौबीसवाँ ३०९ देखती जाती थी | वह सांड तो बात समझ गया । एक एक मोदक रखते रखते देश्याने पात्रा भर दिया । लेकिन सोनैया (सोनामुहर) वरसाद नहीं हुआ । इस लिये वेश्या का मुँख ढीला हो गया । यह देखके वह भांड बोला : ते साधु ते श्राविका तूं वेश्या मैं भांड | तारा मारा पापथी पथ्थर पडशे रांड ॥ तू ऊँचे देखना नहीं देव ! तुझे अथवा मुझे किसीको भी प्रसन्न होने वाले नहीं हैं । लेकिन जो रूठेंगे तो सोनेया के बदले पथ्थर (पत्थर) बरसावेंगे और अपन दोनों मर जायेंगे । कर्म को गति गहन है । कर्म पसे एसे नाच नचाता है कि प्रत्यक्ष देखने पर भी तुम्हें वैराग्य नहीं आता है । ये आश्चर्य है । कर्म की विचित्रता को समझाने वाली अठारह नातरा की कथनी विचारने जैसी है । मथुरा नगरी में वसती कुवेरसेना नाम की गणिका मशहूर थी । एक वार किसी पुरुष से उसे गर्भ रहा । : गणिकाओं को वालकों की जंजाल कैसे अच्छी लगे ? फिर भी उसे गर्भपात कराने का मन नहीं हुआ । योग्य समय में पुत्र पुत्री की जोडा जन्मा | गणिका का धंधा होने के कारण इच्छा नहीं होने पर भी बालकों का त्याग करना पड़ा । एक पेटी ( सन्दूक) में दोंनो को सुला के वह पेटी जमुना नदी में पंधरा दी। दोनो वालकों के हाथकी अंगुली
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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