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प्रवचनसार कर्णिका एक अयंकर जंगलमें एक साधु महात्मा ध्यान धरते. थे। उस जंगलकी अधिष्ठाता देवी मुनि की सेवा करती थी। महात्मा को कुछ भी तकलीफ न हो, कुछ अगवडता (अव्यवस्था) न हो इसकी तकदारी (सावधानी) रखती थी।
लाधुकी सेवा करने की इच्छा देवोंको भी होती है। • साधुकी लेवा करने ले सद्गति प्राप्त होती है। . ..
ग्रीष्मकाल का समय था। जंगलमें काष्ठ लेने के लिए अनेक मनुण्य आते थे। वहाँ अति तापसे तृप्त वना एक मनुष्य पेडके नीचे विश्रान्ति ले रहा था। उसकी दृष्टि • सामने खड़े मुनि पर पड़ी। उसको विचार आया कि लाओने मुनिकी परीक्षा करूं। कहा जाता है कि जैन मुनि समतावंत होते हैं तो इन मुनिमें समता कितनी है यह देख लूं। - वह था गाँवका अज्ञानी मनुष्य ! इस बिचारे को खबर नहीं थी कि क्या बोलना? और क्या नहीं बोलना? वह तो गया मुनिके पास और मुनिके सामने खडा हो के ज्यों-त्यों बोलने लगा।
देखा! देना! तुमको ! तुम तो ध्यानका ढोंग करके "खड़े हो और लोगों को उगते हो ऐसी कटु वाणी सुनते ही महात्मा के दिलमें रहा क्रोध भड़क उठा ।
अरे ! जा ! जा! ढोंगी कहनेवाला! नहीं तो तुझे मार डालूंगा। देहाती सनुष्य यह सुनके बहुत ही गुस्से हुआ। उसने विलम्ब किये बिना ही महात्मा को पीटना शुरू किया। महात्माने भी लिया डंडा हाथमें और लगे देहाती को पीटने ।
परस्पर मारामारी बढ़ गई। पशु-पक्षी भी रुक गए।