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________________ "२८४ प्रवचनसार कर्णिका उनके स्थान में जो देवियां वहां रहते देवको पति तरीके स्वीकार करती हैं। देवलोक में एसा रिवाज है । उपधान करके पुन्यशाली जब घर जाय तब घर के मनुष्यों से कहे कि मैं अब सेरा मन देव गुरु धर्म को सोंप के आया हूं। मैं अड़तालीस दिन की आराधना की। इसलिये मेरा मन संसार के ऊपर से उतर गया है। और धर्म में लग गया है। अब मेरा मन तुम में नहीं है। घर में में मन विना रहता हूं। मन उपडेगा और वैराग्य आयेगा। तो मैं चला जाऊंगा । अभवी को देशना असर नहीं करती है। मोक्ष की श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती है। जैले मरुधर (मारवाड) में कल्पवृक्ष नहीं होता उसी तरह अभवि में सोक्ष तत्व की श्रद्धा नहीं होती। जब तक मिथ्यात्व रूपी जहर नहीं जाता है तब तक समकित रूपी अमृत का पान नहीं हो सकता है। "राज्यं नरक प्रद" राज्य नरक गतिका कारण है। लोकोक्ति में भी कहा गया है कि "राजेसी नरकेसरी"। तामली तापस अन्तिम समय आराधना में तदाकार वनके ईशान देवलोक में गया । ईशानेन्द्र तरीके हुये । 'वहां जाके समकित को प्राप्त किया। प्राप्ति पूरी हुई। इतने में तो देवदेवी सेवा में हाजिर हो गये। जगत का स्वभाव एसा है कि जन्मना ओर मरना, हसना और रोना, सुख और दुख, परणना (शादी करना) ओर रंडाना (विधवा अथवा विधुर होना) वगैरह अच्छा अथवा बुराः जहां होता ही रहता है उसका नाम जगत ।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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