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________________ २६० प्रवचनसार कर्णिका भावभावक रातको जगके विचार करें कि में कौन ? कहां से आया हूं ? कहां जाने वाला हूं? मेरा धर्म क्या है ? मेरे देव कौन ? मेरे गुरु कौन ? मुझे इस भवमें क्या करना है ? और क्या कर रहा हूं ? एसे विचार रोज करो तो जीवन सुधरे बिना नहीं रहेगा । मुनमें विद्यमान मिथ्यात्व कब जायगा ? और समकित कच आवेगा ? एसे विचार हर रोज करना चाहिये | गत भवों में धर्म की आराधना की थी । इस से कल्याणकारी पुन्य बंधा है । उस के प्रताप से यहां सुखी हूं । अव जो धर्म नहीं करू तो नया भाथा परभव के लिये तैयार नहीं हो सकेगा । और गतं भवका भाथा तो खलास हो जायगा । इसलिये धर्मकी आराधना में प्रमाद नहीं करना चाहिये | कर्म ग्रन्थ में लिखा है कि जो मनुष्य गुरु महाराज की भक्ति करे, क्षमा रखे, शील पाले, और परोपकार करे वह जीव शाता वेदनीय कर्म बांधता है । गुरु महाराज की निन्दा करने से गुणीजनों की ईर्ष्या करने से और व्रत पालन में ढीलाश करने से अशाता का बन्ध होता है । चाहिये शाता और काम करना है, अशाता के पसे शाता कहां से मिले ? 7 = साकर (शक्कर, मिश्री ) का पानी तीन प्रहर तक.. अचित्त इसके पीछे सचित्त बनता है । लविंग, त्रिफला आदि से भी पानी अत्ति वनता है । तामली तापत संसारी अवस्था में सुखी था । पुत्रादि 1
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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