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________________ व्याख्यान - इक्कीसवाँ २२७ वेकचूल को नियम याद आता है कि " अजाण्या फल (अनजान फल ) नहीं खाना" । कानू ! नाम जाने विना मैं इस फलको खाने वाला नहीं हूँ । क्यों कि मुझे नियम है । कानू और दूसरे साथियोंने चाकू से फल चीर के खाना शुरू किया । फल खाते खाते कानू वोला महाराज ! एसे मीठे फल तो आपने कभी भी नहीं खाये होंगे । कुछ भी हों मगर मुझे तो नियम है कि अजान फल खाना नहीं । मेरे इस नियम का मैं भंग नहीं करूंगा । बंकचूलने अपने नियम पालन की दृढता दिखाई | वंकचूल के दोनो साथी फल खाके आडे होकर सो गये । घड़ी दोघड़ी में तो दोनों के मुँह से फीण ( फसूकर ) निकलने लगा । काया निस्तेज वन गई । वकचूल उनके लिये प्रयत्न करे उसके पहले तो उन दोनोके प्राण पंखेरु उड़ गये ( यानी मर गये ) । वंचूल विचार करने लगा कि महात्माने नियम नहीं दिये किन्तु मुझे प्राण दिये हैं । प्रथम वार पत्नी और बहन बच गई। और दूसरी बार मैं बच गया । सचमुच में उन महात्मा को कोटि कोटि वंदन हो । दोनों के शवों को अश्वों के ऊपर गोठ दिये । तीसरे अव पर वकचूल बैल के विदा हुआ । फलके छिलके मलक सलक कर हंस रहे थे । सानो कचूल को देखकर अट्टहास्य ही करते हों । "तीसरे दिन की साम को वंकचूल पल्ली में आया । बनी हुई सब बात सुनाई । पल्लीवासी शोकातुर बन गये !
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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