SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान-इक्कीसवाँ २१३ आगे महात्मा मंदगति से चलते थे। पीछे से जनसमुदाय गमगीन चेहरे से चल रहा था। एक विशाल वट वृक्षके नीचे महात्मा खडे हो गये । मंगलीक सुनाया। सवको पीछे जानेका सूचन, करके धर्मलाभ रूपी आशीर्वाद दिया । सजल नयन सव पीछे लौटे । लेकिन वंकचूल पीछे नहीं लौटा। ..... थोडी दूर जाकर के महात्मा फिर खड़े हो गये । महात्माने अपना. दाहिना हाथ वंकचूल के सिरपै रक्खा । महानुभाव, तुम्हारी कुलीनता छिपी नहीं रह सकती। पुष्प में से पराग नहीं निकले ये कैसे हो सकता । तुम्हारा धंधा भले चोरी का हो किन्तु तुम जरूर उच्च कुल के पुन्यवान लगते हो। हरकत न हो तो तुम्हारी पूर्वकथा कहो। - भगवन्त ! भगवन्त ! कहते कहते वंकचूल हिचकियां ले लेकर रोने लगा । अति दुःखी एसा मनुष्य भी अपने हृदय की वात महात्मा के पास करते हैं । और शान्ति प्राप्त करते हैं । जगत के तापसे व्याप्त वने जीवों को शान्ति देना ये जैन मुनियों का परम कर्तव्य है। .. वंकचूलने अपनी सब वितक कथा गुरु महाराज को कह सुनाई । महात्मा सुनके प्रसन्न हुये । महानुभाव ! चार महीना हम तुम्हारी पल्ली में रहे किन्तु शर्त: से बंधेः होने से हमने तुमको कुछ भी उपदेश नहीं दिया । अब तुम्हारी अनुमति हो तो कुछ कहें ! . .. .... बंकचूलने कहा कि हे महात्मन् ! आप तो हमारे परम उपकारी गुरु हो । आपको जो कुछ कहना हो सो फरमाओ । मैं तो आपका सेवक हूं।...........
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy