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प्रवचनसार कर्णिका
कभी कभी वंचूल भी वन्दना करने आता था । कुछ कामकाज हो तो फरमाओ एसी विवेकभरी वंकचूल की बातें सुनकर सुनि विचार करने लगे कि जो धर्मोपदेश नहीं करने की शर्त न रखी होती तो इस भाग्यशाली का जीवन जरूर बदल जाता ।
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कारतक सुदी चतुर्दशी का समय था । चोमासा की पूर्णता का अन्तिम दिन था । बंकचूल दर्शन करने आया तव महात्मा कहने लगे कि महानुभाव ! आज चोमासा पूरा हो रहा है । अपनी शर्त की अवधि भी पूरी हो गई है । जैसे बहता पानी निर्मल रहता है वैसे साधु भी नकली विहार करने से उनका संयम निर्मल रहता है ।
हम कल यहाँले विहार करेंगे । वकचूलने थोड़े दिन और स्थिर रहनेका आग्रह किया, लेकिन मुनियोंने अपने विहारका प्रोग्राम निश्चित रक्खा । पल्ली में चार महीना रहके मुनि चले जायेंगे । चार महीना में नहीं किसी की अच्छी कही और न वूरी कही । "धर्मलाभ" के सिवाय कुछ भी नहीं वोले । उपदेश नहीं देने पर भी मौन का प्रभाव हुआ । प्रत्येक पल्लीवाली के अंतर में इन महात्माओं के लिए पूर्ण मान उत्पन्न हुआ। क्योंकि पूरे चातुर्मास में ये मुनिमंडल सदा ध्यान - स्वाध्याय और आगम वांचन में तदाकार बने थे। कभी भी आकर कोई भी देखता था तो ये महात्मा तत्व - चिंतनमें मस्त थे ।
कार्तिक सुदी पूर्णिमाकी मंगलमय प्रभातमें ये महात्मा विहार के लिए तैयार हुए। पल्लीवासी आबाल-वृद्ध इकट्ठे हो गए । कमलादेवी और सुन्दरी भी आ गई । इन दोनोंकी आँखों में से अथुधारा बहने लगी। गुरुविरह की असह्य वेदना उनके हृदयको कंपा देती थी ।
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