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________________ १९७ - व्याख्यान-इक्कीसवाँ ... पत्नी के द्वारा स्पष्ट वात कही जाने पर पुष्पचूल ने कहा कि अरे, तू यह क्या बोलती है ? तेरे जैसी संस्कारमूर्ति और रूप में अप्लरा ले भी चढ जाय एसी तुझे छोड़ के मैं दूसरी औरतों में रस क्यों लूँ ? इसलिये तू विश्वास रख कि मेरे दिल के दीवानखाना में तेरा ही अखंड स्थान है। उसमें दूसरी किसी का अवकाश नहीं है। पत्नी कहने लगी कि आप हमेशा मध्यरात्रि पीछे ही भवन में आते हो। इसलिये लोग आपके विषय में वेश्यागमनकी कल्पना करते हैं। बड़े मनुष्यों को व्यवहार भी शुद्ध रखना चाहिये। जो व्यवहार शुद्ध न हो तो लोक निन्दा हुये विना नहीं रहे । पत्नी को खुश रखने के लिये बाहर से प्रियवचन से पुष्पचुल कहने लगा कि अब से तेरी सीख में अवश्य ही मानूंगा । वोल अब और कुछ भी तुम्हें कहना है ? पतिके वचन सुनकर कमलादेवीने फिर से विनती की स्वामिन् । चोरी तो आप छोड़ दो। परन्तु पुष्पचूल अपनी भूल जल्दी सुधारे एसा कहां था ? वह तो उलटा कहने लगा कि कमला, मैं चोरी नहीं करता हूं। परन्तु मैं मानता हूं कि चोरी ये पाप नहीं है। यह तो एक कला है । सुरक्षित .. भंडार में से धन को उठाना ये कोई लड़कों का खेल नहीं है। स्वामिन् ! धर्मशास्त्र में और राज्य संचालन में चोरी को पाप और गुन्हा कहा गया है। इसलिये आपको उसका त्याग करना चाहिये। . इस तरह से दूसरी भी कितनी बातें कर के पुष्पचूल ने कमला को संतोषी दी । इस तरह से कुछ टाइमतक
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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