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________________ રૂ૭ - - व्याख्यान-सोलहवाँ कहने लगे कि माताजी, मुझे नीचे आनेका क्या काम है? जो आया हो उसे वखारसे (गोदाममें डाल दो)। पुत्र के एसे प्रत्युत्तर ले माता कहने लगी कि हे पुत्र, ये कोई वखार में डालने की चीज नहीं। ये तो मगधाधिपति महाराजा श्रेणिक हैं। अपने मालिक हैं, अपने स्वामी हैं। अपन तो इनकी प्रजा कहलाते हैं। इसलिये उनकी आज्ञा अपनको पालनी ही चाहिये। एसा समझा के माता अपने 'पुत्रको तीसरी मंजिल पर लाती है । चार मंजिल की सोपान श्रेणी उतरते उतरते तो शालिभद्र श्रमित बन गये। गुलाव की कली जैले सुकोमल मुखारविन्द पर सोती जैसें पलीने के मिन्दु झलकने लगे। कोमल काया वहुत ही श्रमित वन गई। . . : राजहंस जैली गतिसे चलते हुए शालिभद्रजी श्रेणिक महाराजा के पास आकर के बैठे। श्रेणिक महाराजा प्रसन्न हो गये । औपचारिक वातचीत करके महाराजा विदाय हो गये। . .. सहाराजा विदाय होने के बाद स्वस्थाने गये शालिभद्रजी का मनं विचार के संकल्प विकल्प में चकडोले चढ़ गया (चकर खाने लगा)। “पुत्र, ये तो अपने स्वासी हैं।" इस प्रकार श्रेणिक महाराजा का परिचय कराता हुआ पूर्वोक्त वाक्य शालिभद्रजी की दृष्टि के सामने स्थिर वन गया। वस! जवतक मेरे ऊपर स्वामी हैं तबतक मेरा इतना पुन्प कम । शालिभद्र इस प्रकार विचार करने लगे। ... . अपना पिता गोभद्र शेठ देवपने में उत्पन्न होने के · वाद पुत्रं प्रति वात्सल्य भावसे प्रतिदिन निन्यानवे पेटियाँ धनकी यहाँ सातवीं मंजिल पर मेजता था। शालिभद्रजी
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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