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________________ व्याख्यान - सोलहवाँ १२१ जराकुमार के द्वारा छोडे गए वाणसे ही श्रीकृष्णकी मृत्यु हुई थी । जराकुमार भी मनुष्य की चीस सुनकर के तुरंत दौडा | श्रीकृष्णजी को देखकर के कल्पांत करने लगा | लेकिन अब क्या हो सकता था ? भावि मिथ्या नहीं होता । जराकुमार की आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी । उस समय कृष्ण महाराजा कहने लगे कि भाई ! अव कल्पांत करना व्यर्थ है । भावि मिथ्या कैसे हो सकता है ? जो होना था सो हो गया । परंतु तू यहाँ से अव चला जा; नहीं तो अभी वलभद्र आयगा और तुझे मार डालेगा । जराकुमार चला गया। थोड़ी देर के बाद वलभद्रजी आये । कृष्णजी की मरणान्त स्थिति देख करके वलभद्र विचार करने लगे कि एसी स्थिति करने वाला कौन दुष्ट है ? मुझे बतावो तो इसी समय उसे खत्म कर दूँ। वहाँ तो कृष्णजी के विचारों में भी परिवर्तन हुआ । कृष्ण लेश्या आई । जीव जिस गतिमें जानेवाला हो उस गतिकी लेश्या तो अवश्य आयेगी ही । थोड़ी देरमें तो कृष्णजी की लेश्या में कैसा पलटा हो गया ? कृष्णजी बोलने लगे कि दुष्ट जराकुमार ! मुझे वाणसे बींध करके, घायल करके...... तू कहाँ चला जा रहा है ? यहाँ आ । मैं तेरी भी खवर ले लूँ । यह सुनकर के वलभद्रजी समझ गये कि यह मृत्यु और किसी के हाथ नहीं हुई किन्तु जरा कुमार के हाथ से ही हुई है । नरक का विरह "काल कितना ? पहली नरक में चौवीस मुहूर्त । दूसरी में सात अहोरात्री । तीसरी में पन्द्रह अहोरात्री, चौथी में एक महीना, पांचवीं में दो महीना, छडी में चार महीना, सातवीं में छः महीना |
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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