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प्रवचनसार कर्णिका
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अन्तर में हालके वैज्ञानिक भी प्रकाशवर्ष वगैरह उपमानों का इसी तरहसे उपयोग करते हैं;
सिर्फ एक समयमें यह जीव लोकाकाश के अग्रभाग में पहुंच सकता है। लोकाकाशमें छः द्रव्य हैं। अलोकाकाशमें सिर्फ एक आकाशास्तिकाय ही है। छः द्रव्योंका स्वरूप समझने से विश्वके पदार्थों का ज्ञान संपादन किया जा सकता है।
कर्म के भारसे दव गये जीवकी शक्ति दव गई है। जिस तरह से मिट्टी के आठ लेपवाली तुमड़ी को अगर पानीमें रक्खा जाय तो डूब जाती है और पानी के नीचे चली जाती है और वे आठों पड़ ज्यों ज्यों धुलते जायें, दूर होते जायें त्यों त्यों तुमड़ी पानीके ऊपर आती जाती है, और जव आठों पड़ विलकुल धुल जाते हैं तो उनके भारले रहित होकर तुमड़ी पानीके ऊपर जल्दी आ जाती है। उसी तरह से आत्मा के ऊपर लगे हुए आठ कर्मोंके पडों की तपश्चर्यादि से धुलाई हो जाने से आत्मा समय मात्रमें लोकाकाश के अग्रस्थान में पहुंचकर शाश्वव सुख का भोक्ता वन जाता है।
दुःख गर्मित, मोह गर्भित और ज्ञान गर्भित वैराग्यमें से ज्ञानगर्भित वैराग्य अवस्था ही जीवको मोक्षगति दिला सकती है।
जहाँ कच्चा पानी होता है वहाँ वनस्पति होती है। कहां है कि-" जत्थजल तत्थ वनम्” असंख्य आत्मायें द्वादशांगी को पा कर तिर गई और वहुत डूचे गए हैं उसमें द्वादशांगी का दोष नहीं है। डूबे हुओंकी अयोग्यता की दोष है. .