________________
१२]
प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य
और मानवता को सबसे ज्यादा कांटों में घसीटने पर मजबूर किया है तो वह यही मतभेद है। इसी के कारण अलग धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, समाज आदि बने हैं, जिन्होंने अपनी कट्टरता के प्रावेश में भतभेद को मामूल और समूल नष्ट कर डालना चाहा है । मतभेदों का निपटारा जब मौखिक नहीं हो पाया तो तलवार की दलील से उन्हें सुलझाने की कोशिशें की गई हैं। एक ने अपने मत की सच्चाई साबित करने के लिए कुर्बान होकर अपने मत को अमर मान लिया है, तो दूसरे ने अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अपने हाथ खुन से रंग कर अपने मत की जीत मान ली है। दुनिया का अधिकांश इतिहास इन्हीं मतभेदों और इनके मुलझाने के लिए किये गए हृदयहीन संघर्षों का एक लम्बा दुःखान्त कथानक है।
अब प्रश्न उठता है कि जब मतभेद रखना इतना विषाक्त पोर विपरिणम्य है, तो क्या मतभेद रखना अपराध करार दिया जा सकता है, या शास्त्रीय उपाय का अवलम्बन करके इसे पाप और नरक में ले जाने वाला घोषित कर दिया जाये ? न रहेंगे मतभेद, न होगी यह खून-खराबी और मशान्ति।
लेकिन समाधान इससे नहीं होगा। मगर आदमी के सोचने की और मत स्थिर करने की क्षमता पर समाज का कानन अंकुश लगायेगा, तो कानून की जड़ें हिल जायेंगी और यदि धर्मपीठ से इस पर प्रतिबन्ध लगाने की प्रावाज उठी तो मनुष्य धर्म से टक्कर लेने में भी हिचकेगा नहीं। धर्म ने जब-जब मानव को सोचने और देखने से मना करने की कोशिश की है, तभी उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा है। अपना स्वतन्त्र मत बनाने और मतभेद को व्यक्त करने की स्वतन्त्रता तो मानव को देनी ही होगी; जो पात्र हैं उनको भी और जो पात्र नहीं हैं उनको भी।
फिर इसे निविष कैसे किया जाये ? विशुद्ध तर्क से तो सबको अनुकूल करना सम्भव है नहीं, और शस्त्र-बल से भी एकमत की प्रतिष्ठा के प्रयोग हमेशा असफल ही रहे हैं । क्रिया, फिर प्रतिक्रिया-फिर प्रति-प्रतिक्रिया; हमले और फिर जवाबी हमले । मतों और मतभेदों का अन्त इससे कभी हया नहीं। ऐसी अवस्था में प्राचार्यश्री तुलसी का सूत्र कि 'मतभेद के साथ मनोभेद न रखा जाये', मुझे प्रपूर्व समाधानकारक मालूम देता है। विष-बीज को निर्विष करने का इसमे अधिक अहिमक, यथार्थवादी और प्रभावकारी उपाय मेरी नजरों से नहीं गुजरा।
भारत के युग-द्रष्टा ऋषि
इसके उपरान्त भी मैं प्राचार्यश्री तुलसी से अनेक बार मिला, लेकिन फिर अपने मतभेदों की चर्चा मैंने नहीं की। भिन्न मुण्ड में भिन्न मति तो रहेगी ही। मेरे अनेक विश्वास हैं, उनके अनेक माधार हैं, उनके साथ अनेक ममत्व के मूत्र सम्बद्ध हैं। सभी के होते हैं। लेकिन इन सब भेदों से अतीत एक ऐसा भी स्थल होना चाहिए, जहाँ हम परस्पर सहयोग से काम कर सकें। मैं समझता हूँ कि यदि चेष्टा की जाये तो समान प्राधारों की कमी नहीं रह सकती।
प्राचायश्री सुलसी एक सम्प्रदाय के धर्मगुरु हैं। और विचारक के लिए किसी सम्प्रदाय का गुरु-पद कोई बहुत नफे का सौदा नहीं है । बहुधा तो यह पदवी विधारबन्धन और तंगनजरी का कारण बन जाती है । लेकिन प्राचार्यश्री की दृष्टि उनके अपने सम्प्रदाय तक ही निगडित नहीं है। वे सारे भारत के युग-द्रष्टा ऋषि है। जैन-शासन के प्रति मेरी आदर-बुद्धि का उदय उनसे परिचय के बाद ही हमा है, अतएव मैं तो व्यक्तिशः उनका प्रामारी हैं। उनके धवल समा. रोह के इस अवसर पर मेरी विनम्र और हार्दिक श्रद्धांजलि!