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आचार्यश्री तुलसी का एक सूत्र
प्राचार्य धर्मेन्द्रनाथ
तीन वर्ष पूर्व सन् १९५८ में प्राचार्यश्री तुलसी भागरा जाते हुए जयपुर पधारे। उस समय उनके प्रवचन सुनने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुअा। आचार्यश्री जिस तेरापंथ-सम्प्रदाय के प्राचार्य हैं, उसे उद्भव-काल से ही स्वकीय समाज में अनेक विरोधों और भेदों का सामना करना पड़ा। किसी भी सम्प्रदाय में जब नई शाखा का प्रसव होता है तो उसके साथ ही वैर और विरोधों का अवसर भी माता ही है। पूर्व समाज नये समाज को पुरातन लीक से हटाने वाला और अधार्मिक बताता है और नया समाज पहले समाज की व्यवस्था को सड़ी-गली और नये जमाने के लिए अनुपयुक्त बताता है। बाद में दोनों एक-दूसरे को अनिवार्य मान कर साथ रहना सीख जाते हैं और विरोध का रूप उतना मुखर नहीं रह जाता, लेकिन मौन-द्वेष की गाँठ पड़ी हो रह जाती है। प्राचार्यश्री के जयपुर-पागमन के अवसर पर कहीं-कहीं उसी पुरानी गांठ की पूंजी खल-खुल पड़ती। विरोधी जितना निन्दा-प्रचार करते, उससे अधिक प्रशंसक उनकी जय-जयकार करते। सम्पन्न लोगों की दुरभिसन्धि
इस सब निन्दा-स्तुति में कितना पूर्वाग्रह और कितना वस्तु विरोध है, इस उत्सुकता से मैं भी एक दिन प्राचार्यश्री का प्रवचन सुनने के लिए पण्डाल में चला गया। पण्डाल मेरे निवासस्थान के पिछवाड़े ही बनाया गया था। प्राचार्यश्री का व्याख्यान त्याग की महत्ता और साधुओं के प्राचार पर हो रहा था : "."किसी धनिक ने साधु-मेवा के लिए एक चातुर्मास-विहार बनवाया जिसे साधुओं को दिखा-दिखा कर वह बता रहा था कि यहां महाराज के वस्त्र रहेंगे, यही पुस्तके, यहाँ भोजन के पात्र और यहाँ यह, यहाँ वह । साधु ने देखभाल कर कहा कि एक पांच खानों की अलमारी हमारे पंच-महाव्रतों के लिए भी तो बनवाई होती, जहाँ कभी-कभी उन्हें भी उतार कर रखा जा सकता।" प्राचार्यश्री के कहने का मतलब था कि माधु के लिए परिग्रह का प्रपंच नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह उसमें लिप्त होकर उद्देश्य ही भूल जायेगा।
मैं जिस पण्डाल में बैठा था, उसे श्रद्धालु भावकों ने रुचि से सजाया था। श्रावक-समाज के वैभव का प्रदर्शन उसमें अभिप्रेत न रहने पर भी होता अवश्य था। निरन्तर परिग्रह की उपासना करने वालों का अपने अपरिग्रही साधनों का प्रदर्शन करना और दाद देना मुझे खासा पाखण्ड लगने लगा। प्राचार्यश्री जितना-जितना अपरिग्रह की मर्यादा का व्याख्यान करते गये, उतना-उतना मुझे वह सम्पन्न लोगों की दुभिसन्धि मालूम होने लगा। हमारा परिग्रह मत देखो, हमारे साधुओं को देखो ! अहो! प्रभावम्तापमाम्! अगले दिन के लिए भोजन तक मंचय नहीं करते। वस्त्र जो कुछ नितान्न आवश्यक हैं, वह ही अपने शरीर पर धारण करके चलते हैं। ये उपवास, यह ब्रह्मचर्य, ये अदृश्य जीवों को हिंसा से बचाने के लिए बाँधे गए मंछीके, यह तपस्या और यह अणुबम का जवाब प्रणवत ! मुझे लगा कि अपने सम्प्रदाय के मेटों की लिप्सा और परिग्रह पर पर्दा डालने के लिए माधुओं की यह सारी चेष्टा है, जिसका पुरस्कार अनुयायियों के द्वारा जयजयकार के रूप में दिया जा रहा है। जब और नहीं रह गया तो मैंने वहीं बैठे-बैठे एक पत्र लिख कर पानार्यश्री को भिजवा दिया, जिसमें ऐसा ही कुछ बुखार उतारा गया था।
प्रश्रद्धा और हठ का भाव
प्राचार्यश्री मे जब मैं अगले दिन प्रत्यक्ष मिला, तब तक प्रश्रद्धा और हठ का भाव मेरे मन पर से उतरा नहीं था।