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बीसवीं सदी के महापुरुष
महामहिम मार प्रथनेशियस जे० एस० विलियम्स,
एम० ए०, डी० डी० सी० टी०, एम० द्वार० एस० टो० ( इंग्लैण्ड) बम्बई के प्रार्थ बिशप एवं प्राइमेट, आाजाद हिन्द वर्ष
संसार में हजारों धार्मिक नेता हो चुके हैं और पैदा होंगे। परन्तु उनमें कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने लोगों के हृदय परिवर्तित किये हैं, संसार में प्रेम और शान्ति के स्रोत बहाये हैं और लोगों के दिलों को इसी दुनिया में स्वर्गीय आनन्द से सरोबार करने के अमूल्य प्रयत्न किये हैं। बीसवीं सदी में हमारी इन आंखों ने भी एक ऐसे ही महापुरुष प्राचार्यश्री तुलसी को देखा है।
यही वह व्यक्ति है जिसके पवित्र जीवन में जैनी भगवान् श्री महावीर को देखते हैं और बौद्ध भगवान् बुद्ध को देखते हैं। हम जो महाप्रभु यीशू स्त्रीष्ट के अनुयायी हैं यीशु स्त्रीष्ट की ज्योति भी उनमें देखते हैं। आचार्यश्री तुलसी ने 'महाप्रभु यीशू स्त्रीप्ट के उस कथन को अपने वैरियों से भी प्रेम करो, को इतना सुन्दर रूप दिया है कि विरोध को विनोद समझ कर किसी की ओर से मन में मैल न श्राने दो।
चर्च से बिदाई
पृथ्वी पर कोई ऐसा स्थान नहीं है जा प्राचार्यश्री तुलसी को प्यारा न हो हमें यह दिन भी याद है, जब प्राचार्यप्रवर बम्बई की बेलासिस रोड पर 'आजाद हिन्द चर्च में पधारे थे। अपने अनुयायियों के साथ मिल कर उन्होंने भजन सुनाये थे और भाषण दिया था। चर्च में ग्राशीर्वाद देकर अपने साधु और साध्वियों को भारत के कोने-कोने में नैतिकता और धर्म प्रसार के लिए विदा किया था। इस दृश्य को देख कर बम्बई में हजारों व्यक्तियों को यह आदचर्य होता था कि जैन साधु ईसाइयों के चर्च में कैसे आ जा रहे हैं। केवल यह तो म्राचार्यश्री ही की महिमा थी जो ईसाइयों का गिरजा घर भी हिन्दू भाइयों के लिए पवित्र स्थान और धर्म-स्थान बन गया था।
जीवन में एक बड़ी क्रान्ति
प्रणुव्रत आन्दोलन का प्रसार कर प्राचार्यश्री ने जनता के जीवन में एक बहुत बड़ी क्रान्ति कर दी है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज भारत के कोने-कोने में सत्य और प्रेम का प्रसार हो रहा है। जनता जनार्दन अपने साधारण जीवन में ईमानदारी का व्यवहार कर रही है। सरकारी कर्मचारी भी अपने कर्तव्य को ईमानदारी से पूरा करने का उपदेश ले रहे हैं । व्यापारी वर्ग से धोखेबाजी औौर चोरबाजारी दूर होती जा रही है। केवल भारतीय ही नहीं, दूसरे देश भी प्राचार्यश्री के उच्च विचारों से प्रभावित हो रहे हैं।
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं भी अणुव्रत आन्दोलन का एक साधारण सदस्य हूँ और मुझे देश-देश की यात्रा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। जब यूरोप और रूस की कड़कती ठंडक में भी मैंने चाय और कॉफी तक को हाथ नहीं लगाया तो वहाँ के लोगों को भापचर्य होता था कि यह कैसे सम्भव है? किन्तु यह केवल प्राचार्यश्री के उन शब्दों का चमत्कार है जो आपने सन् १९५४ के नवम्बर महीने के प्रारम्भ में बम्बई में कहे थे फादर साहब, भाप शराब तो नहीं पीते हैं ?