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पध्याय ]
श्रीकृष्ण के ग्राश्वासन की पूर्ति
उतनी ही बड़ी हानि उसे प्राप्त न करने में है। इसलिए वे प्रात्म-साक्षात्कार करने के लिए प्रवृत्त होते है। यह प्रान्मा है क्या और उसे कैसे प्राप्त किया जाए? यही उनकी समस्या बन जाती है। वे प्रारम-शान का फल तो चाहते हैं, किन्त उसका मूल्य नहीं चुकाना चाहते। वे साधन चतुष्टय (माधना के चार प्रकार ) की उपेक्षा करते हैं, जिसके द्वारा ही प्रात्म-ज्ञान प्राप्त होता है। प्राचार्यश्री तुलसी का अणुवत-आन्दोलन साधन चतुष्टय की प्राप्ति में बड़ा सहायक होगा और प्रात्मसाक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त करेगा।
प्रात्म-साक्षात्कार जीवन का मूल लक्ष्य है; जैसा कि श्री शंकराचार्य ने कहा है और जैसा कि हम भगवान् श्री रमण महर्षि के जीवन में देखते हैं। भमवान् श्री रमण ने अपने जीवन में और उसके द्वारा यह बताया है कि आत्मा का वास्तविक मानन्द देहात्म-भाव का परित्याग करने से ही मिल सकता है। यह विचार छूटना चाहिए कि मैं यह देह हूँ। 'मैं देह नहीं हूँ' इस का मर्थ होता है कि मैं नस्थूल हूँ, न सूक्ष्म हूँ और न आकस्मिक है । 'मैं प्रात्मा हूँ' का अर्थ होता है मैं साक्षात् चैतन्य हूँ, तुरीय हूँ जिसे जागृति, स्वप्न और मुषुप्ति के अनुभव स्पर्श नहीं करते। यह 'साक्षी चैतन्य' अथवा 'जीव साक्षी सदा 'मर्ष साक्षी के साथ संयुक्त है जो पर, शिव और गुरु है। प्रतः यदि मनुष्य अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान ले ते फिर उसके लिए कोई अन्य नहीं रह जाता, जिसे वह धोखा दे सके अथवा हानि पहुँचा सके। उस दशा में सब एक हो जाते हैं। इसी दशा का भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार वर्णन किया है- गुड़ाकेश, मैं प्रात्मा हैं जो हर प्राणी के हृदय में निवास करता हूँ; मैं सब प्राणियों का प्रादि, मध्य और अन्त हूँ।' आचार-मेवन के महावत द्वारा और श्रवण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा अहंकार-शून्य अवस्था अथवा ग्रहम ब्रह्मास्मि की दशा प्राप्त होती है। महावत के पालन के लिए प्राचार्यश्री तुलमी द्वारा प्रतिपादित अणवत प्रथम चरण होंगे।
प्राचार्यश्री तुलसी ने नैतिक जागृति की भूमिका में ठीक ही लिया है, “मनुष्य बुरा काम करता है। फलस्वरूप उसके मन को अशान्ति होती है। प्रशान्ति का निवारण करने के लिए वह धर्म की शरण लेता है। देवता के आगे गिड़गिड़ाता है । फलस्वरूप उमे कुछ सुम्व मिलता है, कुछ मानमिक गान्ति मिलती है। किन्तु पुन: उसकी प्रवृनि गलत मार्ग पकड़ती है और पुनः प्रशान्ति उत्पन्न होती है और वह पुनः धर्म की शरण जाता है।" असल में धर्म और धार्मिक अभ्यास निर्वाण के लिए है। जब मनुष्य एकदम निराबरण होता है, वह मुम्ब और दुःस्व से ऊपर उठ सकता है और सुख एवं दुःख को समभाव से अनुभव कर सकता है। यही कारण है कि विष्णु सहस्रनाम में, निर्वाणम्, भेषजम्, मुखम् प्रादि नाम गिनाये हैं । निर्वाण हमारे मब रोगों की भैषज है और अगर वह प्राप्त हो जाये तो वही सच्चा सुख है--सर्वोच्च प्रानन्द है।
निषेध विधि से प्रभावक
प्रापका पादर्श जान-योग, भक्ति-योग अथवा कर्म-योग कुछ भी हो, अपने अहम् को मारना होगा, मिटाना होगा। एक बार यह अनुभूति हो जाये कि आपका अहम मिट गया, केवल चिद्भास शेष रह गया है, जो अपना जीवन और प्रकाश पारमार्थिक से प्राप्त करता है। पारमार्थिक और ईश्वर एक ही है, तब प्रापका अस्तित्वहीन अहम् के प्रति प्रेम अपने-आप नष्ट हो जायेगा । भगवान् श्री रमण महर्षि के समान सब महात्मा यही कहते हैं। इसलिए हम सब अणुव्रतों का पालन करें, जिनके बिना न तो भौतिक मोर न आध्यात्मिक जीवन की उपलब्धि हो सकती है। अणुव्रत की निषेधात्मक प्रतिज्ञाएं विधायक प्रतिजामों में अधिक प्रभावकारी हैं और वे न केवल धर्म और आध्यात्मिक साधना के प्रेमियों के लिए प्रत्युत सभी मानवता के प्रेमियों के लिए पूरी नैतिक आचार-मंहिता बन सकती हैं।
भगवान् को प्रणोरणीयान् महतो महीयान् कहा है। प्रात्मा हृदय के अन्तरतम में सदा जागृत और प्रकाशमान रहता है, इसलिए वह मनुष्य के हाथ-पाँव की अपेक्षा अधिक निकट है और यदि मानवता इस बात को सदा ध्यान में रखे तो मानव अपने मह मानवों को धोखा नहीं दे सकता और हानि नहीं पहुंचा सकता। यदि वह रोमा करता है तो स्वयं अपनी प्रात्मा को ही धोखा देगा अथवा हानि पहुँचाएगा, जो उसे इतना प्रिय होता है।