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प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन प्रय
[प्रथम
हुए हैं, उनके निकट साधनों का कोई महत्व नहीं यदि साध्य न्योयोचित हो। किन्तु गांधीजी का कहना था कि साधनों को साध्य से पृथक् नहीं किया जा सकता। इसका यह अर्थ होता है कि न्यायोचित साध्य को अनुचित साधनों से प्राप्त करना नैतिक नहीं है। गांधीजी का कहना था कि हमको लोगों का हृदय परिवर्तन करके सामाजिक परिवर्तन लाना चाहिए।
हमारी सभी नीतियों और कार्यक्रमों में यही नैतिक भावना निहित है। सन् १९३७ में गांधीजी ने आर्थिक पुनर्रचना के अपने सिद्धान्तों का विश्लेषण किया और कहा, "अर्थशास्त्र उच्च नैतिक मानदण्ड का कभी विरोधी नहीं होता, जिस प्रकार कि सभी सच्चे नैतिक नियमों को उत्तम अर्थशास्त्र के भी अनुकूल होना चाहिए। जो अर्थशास्त्र केवल लक्ष्मी की पूजा करने का प्राग्रह करता है और बलवान को निर्बल को हानि पहुँचा कर धन-संग्रह करने में समर्थ बनाता है, वह भूठा और दयनीय विज्ञान है। वह मौत का सन्देशवाहक होगा। इसके विपरीत मच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय का पोषक होता है, वह सबका, निर्बल से निर्बल का हित साधन करना है और उत्तम जीवन के लिए अनिवार्य होता है।" समाजवाद के नैतिक आधार की इसमे अच्छी व्याख्या दूमरी नहीं हो सकती।
अध्यात्म की नकेल
प्राचार्यश्री तुलसी ने यही विचार प्रतिपादित किया है। उन्होंने भौतिकता पर आध्यात्म की नकेल लगाई है। उनका तत्त्व ज्ञान व्यक्ति पर केन्द्रित है और सर्वोच्च सामाजिक श्रेय प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को नियमों का कुशलतापूर्वक पालन करना चाहिए। यह विधि संहिता कोई ऐसी कठोर नहीं है कि उसकी अवहेलना करने पर न्यायालयों द्वाग किसी को दण्ड पाना पड़े। न्यायालय वास्तविक और प्रभावशाली समाजवाद की स्थापना करने में सहायक नहीं हो सकते। यह बहुधा कहा गया है कि लोकतन्त्र की सफलता मुख्यतः इम पर निर्भर करती है कि लोग अपने अधिकारो और सुविधाओं की मांग करने के पहले अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को पूरा करें। लोकतन्त्र की भाँति समाजवाद की सफलता की भी यही कसौटी होगी। आदर्श की पूर्ति के लिए नागरिकों को राष्ट्र के सामने उपस्थित सभी कार्यों में बिना किसी बाहरी सत्ता के आदेश के स्वेच्छा और उत्साहपूर्वक योग देना चाहिए।
इन प्रयत्नों में अणुवन और ऐमे ही अन्य प्रान्दोलन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दांच में ठोस और मिथर नैतिक आधार पर व्यापक परिवर्तन लाने में हमारी सहायता कर सकते हैं।