________________
संत भी, नेता भी
श्री गोपीनाथ 'मन' अध्यक्ष, जन-सम्पर्क समिति, दिल्ली प्रशासन
करीब पाठ-नौ वर्ष पूर्व की बात है जबकि मैं दिल्ली विधान-सभा का उपाध्यक्ष था; एक दिन मेरे मित्र श्री जैनेन्द्रकुमारजी ने, जब हम दोनों एक अधिवेशन मे वापस पा रहे थे, कहा कि चलिये, आपको एक संत के दर्शन कराएं । मैंने पूछा, कौन? उन्होंने बताया, प्राचार्यश्री तलसी। मैंने प्राचार्यश्री तुलसी का नाम तो मुन रखा था, न मैंने उन्हें देखा था और न उनके प्रान्दोलन को । मैं जैनेन्द्रजी के माथ नया बाजार में पाया। वहाँ प्राचार्यश्री तुलसी के दर्शन हुए। मड़क के किनारे उनके श्रद्धालु भक्तों की बहुत बड़ी भीड़ थी। मेरा थोड़ा ही परिचय हुआ और मैं दर्शन करके चला पाया। कोई विशेष बातचीत नहीं हुई। दर्शनों में मैं प्रभावित अवश्य हुया, परन्तु इतना ही कि यह एक संत हैं और एक धार्मिक सम्प्रदाय के प्राचार्य है। यद्यपि यह भी अपने-आप में बहुत बड़ी बात है, परन्तु तब मैं अणवत-अान्दोलन को नहीं जानता था। इसकी कुछ रूप-रेखा मुझे उनके मंतों के द्वारा उस समय ज्ञात हुई. जब मै एक वर्ष बाद दिल्ली-राज्य का मन्त्री बन गया । मुनिश्री नगगजजी और मुनिश्री बुद्धमलजी, मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' और मुनिश्री नथमलजी मे मेरा परिचय हुअा और मैंने प्रण वन-आन्दोलन का थोड़ा-बहुल मध्ययन किया । जहाँ तक मुझे याद है, मैने जोधपुर में पहला अधिवेशन देखा। फिर तो सरदार शहर और राजस्थान के कई स्थानों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुप्रा और प्राचार्यश्री तलमी के दर्शन निकट से हो सके।
जब मैं मन्त्री था, तो कुछ मेरे अणुव्रती होने की भी चर्चा चली, परन्तु मन्त्री होते हुए मैं अणुव्रत के नियमों को पूरी तरह निवाह नहीं सकता था। मैं यह नहीं कहता कि यह निर्बाह किसी मन्त्री के लिए सम्भव नहीं है, परन्तु मेरे-जैसे दुर्बल मनुष्य के लिए असम्भव अवश्य था। फिर जब विधान मभा टूटी और मै जन-सम्पर्क समिति का प्रधान बना तो उसी के कुछ सप्ताह पीछे मैने एक रात्रि को प्राचार्यश्री तलमी के सान्निध्य में अणुव्रत भी ग्रहण किये। अब एक अणवती होने के नाते और दिल्ली प्रणवत समिति के प्रधान तथा अखिल भारतीय अणदत समिति के उपप्रधान होने के नाते आचार्यश्री से और निकट सम्पर्क हुआ । मैं जो अपने विचार लिख रहा हूँ, वह उनकी पूरी रूप-रेखा नही है ; परन्तु इतना ही है, जितना कि मैं देख सकता था।
सिद्धान्त की अपेक्षा व्यक्ति से प्रभावित
मै सिद्धान्त की अपेक्षा मनुष्य से अधिक प्रभावित होता हूँ। जब मैं सन् १९२१ में कांग्रेस में पाया तो गांधीजी के चरित्र से प्राकर्षित होकर ; और प्रणुव्रत-आन्दोलन में पाया तो आचार्यश्री तुलसी और उनके संतों से प्रभावित होकर। महाव्रती का जीवन बीसवीं शताब्दी में, बल्कि संवत् के हिसाब से इक्कीसवीं शताब्दी में बड़ा आश्चर्यजनक है । मनुष्य ने अपनी प्रावश्यकताएं बढ़ा ली है और प्रावश्यकताओं का बढ़ाना सभ्यता का चिह्न समझा जाने लगा है। एक ऐसे दौर में कोई व्यक्ति या उससे भी बढ़ कर कोई मण्डली अपनी प्रावश्यकताओं को इतना समेट ले कि उसके पास एकदो कपड़े और पात्रों से अधिक कुछ न हो, यह बड़े पाश्चर्य की बात है। और फिर ऐसे महावतियों का अपना संगठन है, यह और भी आश्चर्य की बात है।
प्राचार्यश्री सुलसी एक संत ही नहीं, एक नेता भी हैं। संत नेता होना बहुत कठिन काम है। संत तो अपना ही