________________
सम्भवामि युगे युगे
श्री को० प्र० सुब्रह्मण्य अय्यर भूतपूर्व उपकुलपति-लखनऊ विश्वविद्यालय
प्रगति की गति
आज संसार एक भयंकर स्थिति में है। एक ओर तो पाश्चात्य विद्वान और वैज्ञानिक प्रपने बुद्धि-बल और परिश्रम से विज्ञान की अद्भत वृद्धि करा रहे है और दूसरी ओर वहीं के राजनैतिक नेता वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत तत्त्वों के आधार पर नये-नये विध्वंसक अस्त्र-शस्त्र बनवा रहे हैं और सारे संसार को विनाशोन्मुख बना रहे है। जहाँ मनुष्य-निर्मित ग्रह सूर्य का परिभ्रमण कर रहा है, वहाँ यह समाचार भी सुनने में आता है कि एक क्षण में एक विस्तृत भूमिभाग को निर्जीव बनाने की शक्ति रखने वाले 'कोबाल्ट बम' का निर्माण अत्यन्त निकट है। प्रेम को ऐहिक और पारलौकिक सुख का मुख्य उपाय घोषित करने वाले ईसाई धर्म में उसी के अनुयायियों की श्रद्धा प्रतिदिन शिथिल होती जा रही है। विमानों के नये-नये प्रकार आविष्कृत हो रहे हैं, जिससे पृथ्वी में दूरता का लोप-सा हो रहा है। विप्रकृष्ट मनुष्य-जानियाँ सन्निकृष्ट हो रही हैं । इसके फलस्वरूप अब सभी मनुष्य-जातियाँ अन्य मनुष्य जातियों को साक्षात् देख सकती हैं और उनसे सम्पर्क और व्यवहार कर मकती हैं। परन्तु इस परस्पर-परिचय से पारस्परिक आदर ही बढ़ रहा हो, यह बात नहीं है। कभी-कभी पारस्परिक द्वेष भी बढ़ता है। जब तक विजातीय और विधर्मी लोग दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, विप्रकृष्ट ही रहते हैं, तब तक उनके प्रति उपेक्षा की ही बुद्धि अधिकांश बनी रहती है। अब तो सब लोग सब जगह जल्दी पहुँच जाते हैं। अब भारतीय अधिक संख्या में विदेशों में संचार करते है और निवास भी करते है। इसी प्रकार विदेगी अत्र अधिक संख्या में भारत आने लगे हैं। इसलिए परस्पर भेद अधिक स्पष्ट होने लगा है।
सभ्यता, संस्कृति और युग
इम नये मंसार में भारत, अपने स्वभाव और अपनी संस्कृति के अनमार, एक विशिष्ट स्थान प्राप्त करने के लिए यत्न कर रहा है। अब भारत ने राजनैतिक स्वातन्त्र्य प्राप्त कर लिया है। परन्तु स्वातन्त्र्य एक उपाय-मात्र है । उसके द्वारा एक बड़े लक्ष्य को मिद्ध करना है तथा इस प्राचीन देश को ननीन बनाना है। यह एक बहुत बड़ा काम है प्रार उममें हर व्यक्ति का महयोग अपेक्षित है। इस देश की पुरानी सभ्यता और संस्कृति को इस नये युग के अनुरूप बनाना है। जीवन के हाक विभाग में आमूल परिवर्तन लाना है। यह काम प्रारम्भ हो गया है। केन्द्रीय सरकार की जो पत्तवर्षीय योजनाएं चल रही हैं, उनका मुख्य उद्देश्य यही है। उनमें यद्यपि आर्थिक सुधार पर अधिक जोर दिया जा रहा है, फिर भी अधिकारियों को इस बात का पूरा ज्ञान है कि केवल आर्थिक उन्नति मे, केवल दारिद्रय-निवारण से, देश की उन्नति नहीं हो सकती है । साथ-साथ अनेक सामाजिक सुधार भी आवश्यक है। शिक्षा-क्षेत्र में यह देश बहुत पिछड़ा हुआ है। इस युग में यह लज्जा और परिभव की बात है । यद्यपि इस देश में अच्छे-अच्छे विद्वान् भी मिलते है। परन्तु इम युग में उन्नति की कमौटी ही दूसरी है। केवल बीस प्रतिशत आदमी ही पेट-भर खा सके और सब भूखे रह जाय तो यह देश को समृद्धि नहीं कही जा मकती है। अच्छे-अच्छे विद्वान् भले ही मिलते हों, परन्तु अधिकांश जनता यदि निरक्षर है तो दशा उन्नति की नहीं समझी जा सकती है। इतनी विद्वत्ता तो व्यर्थ गई, क्योंकि उसका साधारण जनता पर कोई असर ही नहीं हुआ। इस युग में साधारण जनता की उन्नति ही उन्नति समझी जाती है। इस दृष्टि से अभी भारत में बहन काम बाकी है।