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अध्याय ]
सम्भवामि युगे युगे
काम इतना बड़ा और सर्वतोमुख है कि सारी जनता यदि बड़ी तत्परता और एकता के साथ निरन्तर प्रयत्न करे, तब कार्य-सिद्धि की सम्भावना है, नहीं तो बिल्कुल नहीं है। कुछ इने-गिने व्यक्तियों के इस काम में भाग लेने से लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है । सारी जनता का सहयोग अपेक्षित है; बड़ा ऐकमत्य हो और उत्साह हो। चीन के सम्बन्ध में भारत में तरह-तरह की भावनाएं हैं । वहाँ की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था के बारे में यहाँ काफी मतभेद भी हैं। कुछ भारतीय चीन हो आये हैं और उन्होंने अपने-अपने अनुभवों का वर्णन भी किया है। इन वर्णनों को पढ़ने के बाद और लौटे हुए कुछ व्यक्तियों से वार्तालाप करने के अनन्तर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चीन में उत्साह है और एकता है। चीन की जनता अपने देश की उन्नति के लिए बड़े उत्साह के साथ भगीरथ प्रयत्न कर रही है। इस बात की भारत में अत्यन्त आवश्यकता है। क्या यहां अपेक्षित उत्साह और एकता है? कुछ अंश में तो दोनों हैं। कुछ अंश में एकता है, इस बात का प्रमाण यह है कि सारे भारत में एक ही राजनैतिक दल राज्य कर रहा है। भारत ने संसार का सबसे बड़ा प्रजातन्त्र स्थापित किया है और वह चल भी रहा है। देश की उन्नति के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई जा रही हैं और कार्यान्वित की जा रही हैं। इस काम में लाखों की संख्या में सरकारी कर्मचारी लगे हैं, असंख्य साधारण व्यक्ति भी व्याप्त है। जहाँ रवातन्त्र्य के पहले न केवल अंग्रेजी राज था, अनेक छोटी-छोटी देशी रियासत भी थीं, राजा-महाराजे और नवाब अपने-अपने राज्य में स्वेच्छानुसार राज करते थे; वहाँ तब इन रियासतों में प्रजा का कोई भी अधिकार नहीं था। इस समय तो भारत का कोई भी अंश नहीं, जहां प्रजातन्त्र चल नहीं रहा हो और जहाँ प्रजा का अधिकार न हो । इस दृष्टि मे समस्त भारत एक ही मूत्र में बांधा गया है। यह एक प्रकार की एकता है। यह अवश्य उन्नति का लक्षण है। इसके आधार पर बड़े-बड़े काम किये जा सकते हैं।
चरित्र-भ्रंश
कुछ मन्तोषजनक बातों के होते हुए भी स्वातन्त्र्य के बाद देश में असन्तोष फैल रहा है। पचवर्षीय योजनायों के मफल होने पर भी देश में शिकायत सुनने में आ रही हैं । ये दुःख की प्रावाजे साधारण जनता की दरिद्रता और पिछड़ी हुई स्थिति के सम्बन्ध में नहीं हैं। चारों ओर से एक ही शब्द-प्रयोग सुनने में आता है और वह है 'चरित्र-भ्रंश'। लोग अपने माधारण वार्तालाप में, नेत-वर्ग अपने भाषणों में, यही घोषित करते हैं कि देश के सामने सबसे बड़ी समस्या जनता के चरित्र-भ्रंश की है । धर्म और मानवता का पूरा तिरस्कार करके लोग अपना स्वार्थ साधने में तत्पर है। जीवन के हरएक क्षेत्र में दम बात का अनुभव किया जा रहा है । जनता का ऐसा कोई भी वर्ग नहीं है जो इस चरित्र-भ्रश से बचा हो । किमी वर्ग, दल, धर्म, सम्प्रदाय या वर्ण को दूसरों पर इस विषय में अभियोग करने का अधिकार नही है। जब तक गांधीजी हमारे वीच थे, तब तक हम लोगों के एक बड़े पथ-प्रदर्शक थे । वे हर एक व्यक्ति को, हर एक दल को, हर एक वर्ग को, शासन के अधिकारियों को, समस्त देश को नरित्र की दृष्टि से देखा करते थे। उनकी वही एक कसौटी थी । राजनीति के क्षेत्र में धर्म और चरित्र की रक्षा करते हुए काम करना असम्भव समझा जाता था। उनका सारा जीवन इस बात का प्रमाण है कि यह विचार अत्यन्त भ्रममूलक है। प्रतिदिन अपनी प्रार्थना-सभागों में जो छोटे-छोटे दस-दस मिनट के भाषण दिया करते थे, उनका मुख्य उद्देश्य जनता का चरित्र-निर्माण ही था। उनके ये भाषण बड़े मार्मिक थे, विचारशील लोग उनकी प्रतीक्षा करते थे, समाचार-पत्रों में सबसे पहले उन्हीं को पढ़ा करते थे और दिन में अपने मित्रों के साथ उन्हीं की चर्चा करते थे। इन भाषणों का प्रभाव सरकारी कर्मचारियों पर, अध्यापक और विद्यार्थियों पर, व्यापारियों पर, गृहस्थों पर, धर्मोपदेशकों पर, सारी जनता पर पड़ता था। गांधीजी के स्वर्गवास होने के बाद उनका वह स्थान अब भी रिक्त है। कोई भी उसको ग्रहण करने में अपने को समर्थ नहीं पा रहा है। धर्म निरपेक्षता बनाम धर्म-विमुखता
देश के पुननिर्माण में सबसे बड़ा काम केन्द्रीय और प्रादेशिक शासनों के द्वारा ही किया जा रहा है। यह स्वाभाविक भी है। उनके पास शक्ति भी है, धन भी है। परन्तु इस काम में शासनों की एक विशेष दृष्टि होती है। उनकी