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प्राचार्यश्री तुमसो अभिनन्दन अन्य
रती, क्योंकि धन प्रसंख्य है और तुष्णा पाकाश की सरह पनन्त ।
गरीब कौन?
विचारणीय यह है कि वास्तव में गरीब कौन है ? क्या गरीब वे हैं, जिनके पास थोड़ा-सा धन है ? नहीं। गरीब तो यथार्थ में वे हैं जो भौतिक दृष्टि से समृद्ध होते हुए भी तृष्णा से पीड़ित हैं। एक व्यक्ति के पास दस हजार रुपये है। वह चाहता है बीस हजार हो जायं, तो पाराम से जिन्दगी कट जाये। दूसरे के पास एक लाख रुपया है, वह भी चाहता है कि एक करोड़ हो जाये तो शान्ति से जीवन बीते। तीसरे के पास एक करोड़ रुपया है, वह भी चाहता है, दस करोड़ हो जाये तो देश का बड़ा उद्योगपति बन जाऊं। अव देखना यह है कि गरीब कौन है? पहले व्यक्ति की दस हजार की गरीबी है, दूसरे की निन्यानवे लाख की और तीसरे की नौ करोड़ की। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो वास्तव में तीसरा व्यक्ति ही अधिक गरीब है, क्योंकि पहले की वृत्तियां जहाँ दम हजार के लिए, दूसरे की निन्यानवे लाख के लिए तड़पती हैं, वहां तीसरे की नौ करोड़ के लिए। तात्पर्य यह है कि गरीबी का अन्त सन्तोष है और असन्तोप ही अर्थ-संख्या का सबसे बड़ा प्रभाव है। मग्रह के जिस बिन्दु पर मनुष्य सन्तोष को प्राप्त होता है, वहीं उसकी गरीबी का अन्त हो जाता है । यह बिन्दु यदि पांच अथवा पाँच हजार पर भी लग गया, तो व्यक्ति मुखी हो जाता है। हमारे देश की प्राचीन परम्परा में तो वे ही व्यक्ति सुखी और समृद्ध माने गए हैं, जिन्होंने कुछ भी संग्रह न रखने में सन्तोष किया है। ऋषि, महषि साधु-संन्यामी गरीब नहीं कहलाते थे और न कभी उन्हे अर्थाभाव का दुःख ही व्यापता था।
भगवान् महावीर ने मुच्छा परिग्गहो-मूर्छा को परिग्रह बताया है। परिग्रह सर्वथा त्याज्य है। उन्होंने आगे कहा है-वित्तण ताणं न ल पमत्ते, धन में मनुष्य त्राण नहीं पा सकता । महाभारत के प्रणेता महर्षि व्याम ने कहा है-~
उदरं भ्रियते यावत् सावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
प्रधिकं योभिमन्येत स स्तेनो बण्डमहति ।। अर्थात-उदर-पालन के लिए जो आवश्यक है, वह व्यक्ति का अपना है। इससे अधिक मग्रह कर जो व्यक्ति रखता है, वह चोर है और दण्ड का पात्र है।
अाधुनिक युग में अर्थ-लिप्सा से बचने के लिए महात्मा गाधी ने इसीलिए धनपतियों को सलाह दी थी कि वे अपने को उसका ट्रस्टी माने । इस प्रकार हम देखते है हमारे सभी महज्जनो, पूर्व पुरुषो, सन्तों और भक्तों ने अधिक अर्थमग्रह को अनर्थकारीमान उसका निषेध किया है। उनके इस निषेध का यह तात्पर्य कदापि नही कि उन्होंने सामाजिक जीवन के लिए अर्थ की आवश्यकता को दृष्टि में प्रोझल कर दिया हो। मंग्रह की जिस भावना से समाज अनीति और अनाचार का शिकार होता है, उसे दृष्टि में रख व्यक्ति को भावनात्मक शुद्धि के लिए उसके दृष्टिकोण की परिशुद्धि ही हमारे महज्जनों का अभीष्ट था। वर्तमान युग अर्थ-प्रधान है। आज ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो माथिक समस्या को ही देश की प्रधान समस्या मानते हैं। आज के भौतिकवादी युग में आर्थिक समस्या का यह प्राधान्य स्वाभाविक ही है। किन्तु चारित्रिक शुद्धि और आध्यात्मिकता को जीवन में उतारे बिना व्यक्ति, समाज और देश की उन्नति की परिकल्पना एक मृगमरीचिका ही है। अण-ग्रायुधों के इस युग में अणुव्रत एक अल्प-अर्थी प्रयत्न है। एक मोर हिसा के बीभत्स रूप को अपने गर्भ में छिपाये अणुबमों मे मुज्जित प्राधुनिक जैट राकेट अन्तरिक्ष की यात्रा को प्रस्तुत हैं। दूसरी ओर भाचार्यश्री तुलसी का यह अणव्रत-आन्दोलन व्यक्ति व्यक्ति के माध्यम से हिसा, विषमता, शोषण, संग्रह और अनाचार के विरुद्ध अहिंसा, मदाचार, सहिष्णुता, अपरिग्रह और सदाचार की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्नरत है। मानव और पशु तथा अन्य जीव-जीवाणुगों में जो एक अन्तर है, वह है उमकी ज्ञान-शक्ति का । निसर्ग ने अन्यों की अपेक्षा मानव को ज्ञान-शक्ति का जो विपुल-भण्डार मौंपा है, अपने इमी सामध्यं के कारण मानव सनातन काल से ही सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्रागी बना हुआ है। प्राज के विश्व में जबकि एक ओर हिमा और बर्बरता का दावानल दहक रहा, तो दूसरी ओर अहिसा और शान्ति की एक गीतल-मरिता जन-मानम को उलिन कर रही है। अब प्रांज के मानव को यह तय करना है कि उसे हिमा और बर्बरता