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अध्याय ] प्राचार्यश्री तुलसी और प्रणवत-माग्दोलन
[ २६ के दावानल में झुलसना है अथवा अहिंसा और शान्ति की शीलन सरिता में स्नान करना है। तराजू के इन दो पलड़ों पर अमन्तुलित स्थिति में प्राज विश्व रखा हुआ है और उसकी बागडोर, इस तराज़ की चोटी, उमी मान-शक्ति सम्पन्न
मानव के हाथ में है जो अपनी शान सत्ता के कारण सृष्टि का सिरमौर है। xसर्वमान्य प्राचार-संहिता
प्राचार्यश्री तुलसी से मेरा थोड़ा ही सम्पर्क हुआ है; परन्तु वे जो कुछ करते रहे है और अणुव्रत का जो साहित्य प्रकाशित होता रहा है, उसे में ध्यान मे देखता रहा हूँ। जैन साधुओं की त्याग-वृनि पर मेरी सदा से ही बड़ी श्रद्धा रही है। इस प्राचीन संस्कृति वाले देश में त्याग ही सर्वाधिक पूज्य रहा है और जैन साधुनों का त्याग के क्षेत्र में बहा ऊँचा स्थान है। फिर प्राचार्यश्री तुलसी और उनके साथी किसी धर्म के संकुचित दायरे में कैद भी नहीं हैं। मैं प्राचार्यश्री तुलसी के विचार, प्रतिमा और कार्य-प्रवीणता की सराहना किये बिना नहीं रह सकता । उनका यह अणुव्रत-पान्दोलन किसी पक्षविशेष का पान्दोलन न होकर समुची मानव-जाति के क्रमिक विकास और उसके सदाचारी जीवन का इन व्रतों के रूप में एक ऐसा अनुष्ठान है जिसे स्वीकार करने मात्र से भय, विषाद, हिसा, ईर्ष्या,विषमता जाती रहती है और सुख-शान्ति की स्थापना हो जाती है। मेरा विश्वास है हिंसा भले ही बर्बरता की चरम सीमा पर पहुँच जाये, पर उसका भी प्रन्त अहिसा ही है और इस दृष्टि मे हर काल, हर स्थिति में प्रणवत की उपयोगिता, उसकी अनिवार्यमा निर्विवाद है।
आचार्यश्री तुलसी एक समृद्ध साधु-संघ के नायक हैं, बृहत् तेरापंथ के प्राचार्य हैं और लाखों लोगों के पूज्य है। उनके इस बड़णन में जो सबसे बड़ी बात है, वह है उनका स्वयं का तथा अपने प्रभावशाली साधु-संघ का एक विशेष कार्यक्रम के साथ जन-कल्याण के निमित्त समर्पण । उनके इस जन-कल्याण का जो स्वरूप है, उसकी जो योजना है, वह इस अणुधन-पान्दोलन में समाहित है। दूसरे शब्दों में. उनके इस आन्दोलन को देश-निर्माण का अान्दोलन कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति और दर्शन के अहिमा, मन्य प्रादि सार्वभौम आधारों पर नैतिक व्रतों की एक सर्वमान्य प्राचार-मंहिता की मंजा भी इसे दे सकते हैं।
व्यक्ति न होकर स्वयं एक संस्था
प्राचार्यश्री तुलसी प्रथम धर्माचार्य है जो अपने बहत् साधु-संघ के साथ सार्वजनिक हित की भावना लेकर व्यापक क्षेत्र में उतरे हैं। प्राचार्यश्री माहिन्य, दर्शन और शिक्षा के अधिकारी प्राचार्य हैं। वे स्वयं एक श्रेष्ठ साहित्यकार और दार्शनिक हैं। अपने साधु-संघ में उन्होने निरपेक्ष शिक्षा प्रणाली को जन्म दिया है तथा मस्कृत, राजस्थानी भाषा की भी वद्धि में उनका अभिनन्दनीय योग है। उनके मंघ में हिन्दी की प्रधानता प्राचार्यश्री की सूझ-बुझ की परिचायक है। आपकी प्रेरणा से ही माधु-समुदाय सामयिक गति-विधि में दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में उतरा है। इसी के अनन्तर आप देग की गिरती हुई नैतिक स्थिति को उर्व मंचरण देने में प्रेरित हा और उमो का शुभ परिणाम यह मर्वविदित अणबत-अान्दोलन बना।
"माचार्यश्री तुलसी एक व्यक्ति न होकर स्वयं एक संस्था-रूप हैं । अापके इस उपयोगी प्राचार्य-काल को पच्चीस , वर्ष पूरे हो रहे हैं। छब्बीसवें वर्ष में तुलसी-धवल समारोह मनाने का जो निश्चय किया गया है, वह प्राचार्य तुलसी के धवल व्यक्तित्व के सम्मान की दृष्टि से भी तथा उनके द्वारा हो रहे कार्य की उपयोगिता और उसके मूल्यांकन की दृष्टि से सर्वथा अभिनन्दनीय है।
मैं इस शुभ अवसर पर प्राचार्यश्री तुलसी को, उनके इस वास्तविक साधु-रूप को तथा उनके द्वारा हो रहे जनकल्याण के कार्य को, अपनी हार्दिक श्रद्धा अर्पित करता हूँ।