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पीकालू उपदेश वाटिका
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वे साधक से कहते हैं:
राग री रैस पिहायो। "पाखिर परसीयांन मन्तरज्ञान जगाणो।
देव, राग दोबीन करम रा,
बाषक दोन्यूं प्रात्म-परमरा,
हो'साधक पावश्यक यारो मुल मिटाणो। प्राचार्य तुलसी ने द्वेष, कलह मिटाकर, झूठ बोलना छोड़ कर, लोभ और माया-मोह तजकर मुक्ति का सुख लेने का आग्रह किया है। तीसरे प्रवेश में पहुंच कर वे साधक को सुखी होने का मार्ग बताते हैं कि :
परिहन्त-शरण में मा जा,
शिव-सुख री झांकी पाजा। क्योंकि:
तीन तत्व हैं रत्न प्रमोलक, जीव जड़ी कर मानोजी।
महन देव, महाव्रतधारी मगर पिछाणोजी। इस प्रवेश में उन्होंने अनित्य, अशरण आदि सोलह भावनामों का वर्णन किया है और जैन धर्म की महिमा स्थापित की है। चौथे प्रवेश का प्रारम्भ उन्होंने समिति और गप्ति से किया है कि:
प्रवचन माता पाठ कहावं ।
समिति गप्तिमय सदा सुहावै। पूरे प्रवेश में प्राचार्यश्री ने पांच समिति, तीन गप्ति और पर्व के सम्बन्ध में बताया है। अन्त में प्रशस्ति में उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ के विषय में कहा है :
थी काल-गरु वचनामत उपदेश जो, मे पाकित करपो स्मरपो जुग-पाछलो। 'श्रीकालू उपवेश वाटिका' वेष जो,
प्रस्तुत चाहै सुणो, सुणामो, बांचल्यो। वास्तव में यह ग्रंथ सुनने, सुनाने और पढ़ने योग्य है। इसमें शिक्षा, सिद्धान्त और अनुभूति का त्रिवेणी संगम है। निस्सन्देह यह भाचार्यश्री तुलसी की एक अमर कृति है, जो आने वाले वर्षों में उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रकाश फैलाती रहेगी।