________________
गति ससीम और मति असीम
मुनिश्री नगराजजी
शीतकाल का समय था। प्राचार्यवर चतुर्विध संघ के साथ बंगाल से राजस्थान की सुदीर्घ पद-यात्रा पर थे। भगवान् श्री महावीर की विहार-भूमि का हम अतिक्रमण कर रहे थे। एक दिन प्रातःकाल गाँव के उपान्त भाग में प्राचार्यबर यात्रा से मुड़ने वाले लोगों को मंगल-पाठ सुना रहे थे। हम सब साधुजन अपने-अपने परिकर में बँधे जी० टी० रोड पर लम्बे डग भरने लगे। यह सदा का क्रम था। कुछ ही समय पश्चान् पीछे मुड़कर देखा तो प्राचार्यवर द्रुतगति से चरणविन्यास करते और क्रमश एक-एक समुदाय को लाँचते पधार रहे थे। देखते-देखते सब ही समुदाय उस क्रम में पा गए। केवल हमारा ही एक समुदाय प्राचार्यवर से प्रागे रह रहा था। हम सब भी जोर-जोर से कदम उठाने लगे । कुछ दूर आगे चल कर देखा तो पता चला मैं और मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' ही प्राचार्यवर से आगे चलने वालों में रहे हैं । उम समय हमारे चलने की गति लगभग बारह मिनट प्रति मील हो रही थी। कुछ एक क्षणों के बाद पीछे की ओर झांका तो मैंने पाया अब प्राचार्यवर से आगे चलने वालों में मैं स्वयं अकेला ही रह गया हूँ, मेरी और प्राचार्यवर की दूरी दस-बीम कदम भी नहीं रह पाई है। अकेले को आगे चलते हुए देख प्राचार्यवर के सहचारी और अनुचारियों में विनोद और कौतुक का भाव भी उभर रहा था।
एक क्षण के लिए मन में पाया, औरों की तरह मैं भी रुक कर पीछे रह जाऊँ, परन्तु दूसरे ही क्षण मोचा प्राचार्यवर आज सबकी गति का परीक्षण ले ही रहे हैं, तो अपनी परीक्षा कस कर ही क्यों न दे दूं। गति का क्रम बारह मिनट प्रति मील से भी सम्भवतः नीचे आ गया था। अब पीछे झांकने को अवसर नहीं था। चलता रहा, प्राचार्यवर के साथ चलने वाले स्वयं-मेवकों के जूतों की मावाज से ही मैं अपनी और प्राचार्यवर की दूरी माप रहा था। चौदह प्रस्तर फागों के और दो प्रस्तर मीलों को लांघ कर ही मैंने पीछे की ओर झाका । लगभग चार फर्लाग की दूरी मेरे और प्राचार्यवर के बीच मा गई थी।
अब मुझे सोचने का अवसर मिला, यह अच्छा हुआ या बुरा ! मड़क के एक ओर हट कर बैठ गया। देखते-देखते प्राचायंवर पधार गये। मुझे शक था, प्राचार्यवर इतना तो अवश्य कह ही दंगे, इस प्रकार मागे चलते रहे, तेतीम प्रासातनाएं पढ़ी हैं या नहीं? इसी चिन्तन में मैं वन्दना करता रहा, प्राचार्यवर प्रबोले ही प्रागे पधार गए।
ग्यारह मील का विहार सम्पन्न कर हम सब भलवा की कोठी में पहुंच गए। दिन भर रह-रहकर मन में प्राता था, मेरे अविचार को प्राचार्यवर ने कैसे लिया होगा। संतों में परस्पर नाना विनोद पूर्ण चर्चाएं रही, पर आचार्यश्री ने अपने भावों का जरा भी प्रकाशन नहीं किया।
सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात् मैं वन्दन के लिए भाचार्यवर के निकट गया। मुनिश्री नथमलजी प्रभूति अनेकों संत पहले से बैठे थे। मैं भी वन्दन कर उनके साथ बैठ गया। प्राचार्यवर ने पाकस्मिक रूप से कहा-तुम्हारी गति तो मेरी धारणा में बहुत अधिक निकली! प्राचार्यवर की वाणी में प्रसन्नता थी। उपस्थित साधुजन प्रातः काल के संस्मरण को याद कर हंस पड़े । उसी प्रसंग पर पृथक्-पृथक् टिप्पणियां चलने लगीं। प्राचार्यवर ने सबका ध्यान आकर्षित करते हुए कहा-ऐसी घटना यह सर्वप्रथम ही नहीं है। बहुत पहले भी ऐसी एक घटना अपने यहाँ घट चुकी है । कालूगणीराज कहा करते थे, तेरापंथ के षष्ठम प्राचार्यश्री माणकगणी जो कि बहुत ही तेज चलने वालों में थे, एक दिन के विहार में एकएक करके सब संतों को पीछे छोड़ते हुए पधार रहे थे। मैं उनकी भावना को भांप गया। अपने पूरे वेग से ऐसा चला कि अगले गाँव में सर्वप्रथम पहुँचा। इस प्रकार प्राचार्यवर ने उस दिन के प्रसंग को जिस तरह सँवारा, उनकी अलौकिक महत्ता और मसाधारण संवेदनशीलता का परिचायक था। सचमुच ही उस दिन उन्होंने मेरी गति को मापा और मैंने उनकी मति को । मेरी गति ससीम रही और उनकी मति असीम रही। उनके प्यार में मेरी हार स्पष्ट दीखने लगी।