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अणुव्रत और एकता
श्री उ० न० लेबर
एकता के लिए यह प्रावश्यक है कि दो या अधिक पृथक् इकाइयों का अस्तित्व हो और एक ऐसा संयोजक माध्यम हो जो दोनों को मिलाकर एक सम्पूर्ण इकाई बना दे। हमारे देश में प्रथक समदायों की कोई कमी नहीं है विभक्त करता है, परम्पराएं हमें विभक्त करती हैं, रीति-रिवाज हमें विभक्त करते है, धर्म हमें विभक्त करते हैं, सम्पत्ति ने तो लोगों को हमेशा ही विभक्त किया है। भारत में तो..."दर्शन भी हमें विभक्त करता है, चाहे हम उसको समझते हों अथवा नहीं। प्रज्ञजनों की यही प्रवृत्ति होती है कि प्रन्तिम विश्लेषण में वे अंश के खातिर पूर्ण को खो जाने देते है, प्रश को ही पूर्ण मान लेते हैं और ऐसे निर्णय पर पहुंचते हैं जिसका कोई प्राधार नहीं होता। इस देश में प्रज्ञान का बोलबाला है। यह प्रज्ञान सामाजिक अहंकार, धार्मिक अहंकार, राजनैतिक और माथिक अहंकार और अन्त में दार्शनिक अहंकार का पोषण करता है। भारत में सिद्धान्तों के संघर्ष की अपेक्षा अहम् का संघर्ष अधिक दिखाई देता है । एक व्यक्ति के अहम् से सारी जाति का नाश हो सकता है और किसी समुदाय का अहम् भी कम हानिकर अथवा कम विनाशक नहीं होता।
राष्ट्र के सामने मुख्य कार्य यह है कि या तो इस ग्रहम् को समाप्त किया जाये, जो अत्यन्त ही कठिन है या उसे मुसंस्कृत बनाया जाये, जो कुछ कम कठिन है। इसका अर्थ यही हुभ्रा कि हमें इस अहम् को उसकी संकुचित गलियों से बाहर निकालना होगा। इसका यह अर्थ भी होता है कि हम यह याद रखें कि जिस स्तर पर हम व्यवहार करते हैं, उन स्तरों पर हमारा प्राचरण पशुओं जैसा होता है, जबकि हम वास्तव में मानव हैं। इसलिए हमको मानव की उत्तम और श्रेष्ठ बृत्तियों को अपनाना और विकसित करना चाहिए।
क्या अणुव्रत इस सुसंस्करण की प्रक्रिया में सहायक हो सकता है ? अणुव्रत यदि भाचार का विज्ञान नहीं है तो फिर और कुछ भी नहीं है। छोटी बातों से प्रारम्भ करके वह ऐसी शक्ति संचय करना चाहता है जिसके द्वारा बड़े लक्ष्य सिद्ध किए जा सके । मनुष्य को दूसरे मनुष्य के साथ व्यवहार में उसका प्रारम्भ करना चाहिए। उसे ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि जिससे वह दूसरों के अधिक-से-अधिक निकट पहुंचता चला जाये और अन्त में सारी दूरी समाप्त हो जाये। यह तभी हो सकता है, जब वह उपेक्षा के स्थान में सहमति उत्पन्न करेगा, घृणा के स्थान पर मित्रता और शत्रुता के स्थान पर लिहाज और मादर की स्थापना करेगा । प्राचरण के द्वारा ही यह सब सिद्ध किया जा सकता है।
विश्व में बुराई भी है और अच्छाई भी। जहाँ भी दुनिया है, वहाँ अच्छाई और बुराई दोनों है। मनुष्य को निरन्तर यह प्रयास करना चाहिए कि वह दूसरे व्यक्ति का भला, बलवान् और उज्ज्वल पक्ष देखे और अपने मन को निरन्तर ऐसी शिक्षा दे कि विरोधी की बुराई को प्रथवा उसके जीवन के निर्बल या कृष्ण पक्ष को देखने की वृत्ति न हो। दक्षिण भारतीय प्रौर उत्तर भारतीय, हिन्दू और मुसलमान, ब्राह्मण और अ-बाह्मण, सवर्ण और हरिजन, आदिवासी और अन्य, भाषा के प्राग्रही और निराग्रही, पंडित और निरक्षर, सरकारी अधिकारी मौर सार्वजनिक कार्यकर्ता, बंगाली मौर बिहारी, बिहारी मौर उड़िया, गुजराती और महाराष्ट्री, ईमाई और अ-ईसाई, सिक्ख और पार्यसमाजी, कांग्रेसा और प्र-कांग्रेसी-सभी को उपेक्षा और पक्षपात के सदियों पुराने घेरे से बाहर पाने का प्रयत्न करना होगा और सामने वाले व्यक्ति के बारे में ऐसा सोचना होगा कि वह हमारे मादर, सहानुभूति और समर्थन का हकदार है। इसके बिना हम सब उस भयंकर संकट से नहीं बच सकते जिसका विघटनकारी शक्तियां प्राज माहान कर रही हैं।