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प्राचार्ययी तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ
कान्ति से उद्देश्य-पूर्ति नहीं, यह तो एकमात्र हृदय-परिवर्तन पर माधारित है। इसलिए हम लोगों को चाहिए कि उक्त देशों के समान दुर्दिन पाने से बचाने तथा समाज में उथल-पुथल न माने देने के लिए उचित मात्रा में त्याग और निःस्वार्थ भावना को जीवन में उतारें। महात्माजी ने भी व्यक्ति को केन्द्र मान कर उसके सुधार पर जोर दिया है और राजतन्त्र के स्थान पर लोकतंत्र को स्थापित करने की अपनी नेक सूझ हमें दी है। हृदय और विचारों में परिवर्तन मावश्यक
राजनीति मौर कानून की चर्चा विशेष हुमा करती है। प्राचार्यश्री तुलसी तो राजनीति और कानून की खुले शब्दों में पालोचना करते हैं। वे कहते हैं कि क्या कानून किसी स्वार्थी को निःस्वार्थी या पर-स्वार्थी बना सकता है? कानून तो एक दिशा मात्र है । इसलिए राजनीति और कानून के परे प्राचार्य विनोबा और प्राचार्य तुलसी के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। जिस क्रान्ति से हृदय और विचारों में परिवर्तन नहीं पाया, वह क्रान्ति नहीं। हिसा पर प्राधारित क्रान्ति से हृदय-परिवर्तन भी सम्भव नहीं। उसके लिए तो प्रेम और सद्भावना का सहारा लेना होगा।
क्रान्ति कोई नहीं । जब-जब समाज में शिथिलाचार हुमा, तब-तब अवतारों व महापुरुषों द्वारा विचारों में क्रान्ति लाई गई। धर्म और नीति में से अधर्म और भनीति को निकाल फेंका गया। समाज का सुधार किया गया । धर्म और नीति समाज के अनुकूल बनाये गये । समाज में एक नया विपर्यय हुअा। धार्मिक, सामाजिक और सांसारिक जीवन के बीच की दीवारें तोड़ी गईं। महात्मा गांधी, विनोबा भावे पोर प्राचार्य तुलसी भी ऐसी ही अध्यात्मनिष्ठ क्रान्ति की उद्घोषणा लिए हैं । अनावश्यक एवं समाज-हित के लिए घातक रूढ़ियों का अन्त करना इन्होंने भी मावश्यक समझा। भगवान् बुद्ध का 'धर्मचक्र प्रवर्तन या धार्मिक क्रान्ति भी सर्वोदय या समाज-सुधार का दिशा-संकेत था। अणुव्रतअान्दोलन भी नैतिक क्रान्ति का एक चिर-प्रतीक्षित चरण है। एक ही भावना
सम्पत्तिदान और अणुव्रत-मान्दोलन की भावना भी एक ही है। एक समाज के हक को उसे दे देने के लिए बाध्य करता है, प्रेरित करता है या उसे सीख देता है। दूसरा संग्रह को ही त्याज्य बताता है और जो कुछ है उसे दानस्वरूप देने को नहीं बल्कि त्यागस्वरूप समाज के लिए छोड़ देने की भावना प्रदर्शित करता है। अणुव्रत-अान्दोलन परिग्रह मात्र को पाप का मूल मानता है । इसके अनुसार संग्रह ही हिंसा की जड़ है। जहाँ संग्रह है वहाँ शोषण और हिंसा प्राप-से-आप मौजूद हैं।
अणुव्रत-पान्दोलन असाम्प्रदायिक और सार्वभौम है। यह चाहे जिस नाम से चले, हमें काम से मतलब है और इसका नामकरण चाहे जो भी कर दिया जाये, लाभ वही होगा। इसलिए अपेक्षा यह है कि प्राचार्यश्री तुलसी द्वारा प्रवर्तित नंतिक अभ्युत्थान के इस पथ को समझ, परख और सीखकर जीवन में अनुकरण करें। साथ ही उसके प्राधार पर अपने व्यवसाय, उद्योग व धन्धे में ऐसे ठोस कदम उठाएं, जिनसे जन-जीवन को भी प्रेरणा मिल सके। धर्म केवल नाम लेने, जय-जयकार करने और मस्तक झुकाने से नहीं होता, अपितु पाचरणों में परिलक्षित होता है।।
प्राचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व में जो मंगलकारी कार्य हो रहा है, उसके साथ मैं तन्मय हूँ और मेरी जो कुछ भी शक्ति है, उसे इस पुण्य कार्य में लगाने को तत्पर हूँ।
अणुन