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यशस्वी परम्परा के यशस्वी आचार्य
मुनिश्री राकेशकुमारजी
तेजसा हिम बयःसमीक्ष्यते तेज-सम्पन्न महापुरुषों का अंकन गणित-प्रयोगों के आधार पर नहीं होता। उनका तेज-प्रधान जीवन विश्व के सामान्य नियमों का प्रपवाद होता है । उनका अभ्युदय स्थिति-सापेक्ष नहीं होता। उनका गतिशील व्यक्तित्व बाहर की सीमाओं से मुक्त रहता है।
केवल बाईम वर्ष की अवस्था, यौवन की उदय बेला में प्राचार्यपद का यह गुरुतर दायित्व इतिहाम के पृष्ठों की एक महान् पाश्चर्यकारी घटना है। श्री कालूगगी के स्वर्गवास के समय अनेकों वृद्ध साधु विद्यमान थे, किन्तु उनके भावी उतराधिकारी के रूप में नाम घोषित हुअा एक नौजवान साधु का, जिसे हम प्राज आचार्यश्री तुलमी के रूप में पहचानते हैं।
प्रवहमान निर्भर
गगन में चमकते हुए चाँद और सितारे अपनी गति से सदा बढ़ते रहते हैं। पवन की गतिशीलता किसी से छिपी हुई नहीं है। विभिन्न रूपों में बहती हुई जलधारा संसार के लिए वरदान है । निरलस प्रकृति के अणु-अणु में समाया हया गति और कर्म का सन्देश संसार के महापुरुषों का जीवन मंत्र होता है। गति जीवन है और स्थिति मत्यू ; इसी अन्तःप्रेरणा के साथ उनके चरण आगे से प्रागे बढ़ते जाते हैं। जब हम प्राचार्यश्री के व्यक्तित्व पर विचार करते हैं तो वह प्रवहमान निर्भर के रूप में हमारे सामने पाता है। उनका लक्ष्य सदा विकासोन्मुख रहता है। बड़ी-मे-बड़ी बाधाएं उन्हें रोक नही सकतीं। बढ़े चलें हम रुके न क्षण भी हो यह दृढ़ संकल्प हमारा इस म्बर लहरी में उनकी प्रान्मा का संगीत मुखरित हो रहा है। उनके पारिपाश्चिक वातावरण में अभिनव पालोक की रश्मियां छाई हुई दिखाई देती हैं। निराशा के कुहरे में दिग्मूढ़ बना मानव वहाँ सहज रूप से नया जीवन पाता है।
अभिनव प्रयोगों के प्राविष्कर्ता
मंघ के सर्वतोमुखी विकास के लिए प्राचार्यश्री के उर्वर मस्तिष्क से विभिन्न प्रयोगों का प्राविष्कार होता रहता है। उन्होंने समयानुकल नया-नया कार्यक्रम दिया, प्रगति की नई-नई दिशाएं दीं। प्रतिक्षणं यन्नवतामपति तदेव रूपं रमणीयताया: इम परिभाषा के अनुमार साधना, शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बल में होने वाले उनके प्रयोग बहुत प्रेरणादायी हैं । तेरापंथ की वर्तमान प्रगति के पीछे छिपी हुई प्राचार्यश्री की विभिन्न दृष्टियाँ इतिहास के पृष्ठों मे मोझिल नहीं हो सकती।
सारे संघ में संस्कृत भाषा का विकास प्राज बहुत ही सुव्यवस्थित और सुदढ़ रूप से देखा जाता है। जहां एक युग में इस सुरभारती का सितारा बिल्कुल मद-मंद-सा दिखाई दे रहा था, लोग मृत भाषा कह कर उसकी घोर उपेक्षा कर रहे थे, प्रगति के कोई नये ग्रासार सामने नहीं थे, वहाँ तेरापंथ साधु समाज में इसका स्रोत अजस्र गति से प्रवाहित होता दिखाई दिया। जिसके निकट परिचय से बड़े-बड़े विद्वानों का मानस भोज युग की स्मृतियों में बने लगा। इसका श्रेय भाचार्यश्री द्वारा अपनाये गये नये-नये प्रयोगों और प्रणालियों को है।
साधना की दिशा में होने वाली प्रेरणामों में खाद्य-संयम, स्वाभ्यायब ध्यान के प्रयोग विशेष महत्व रखते है।