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मध्याय ]
एक रूप में अनेक दर्शन
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कितना अगाध है ? इसे समझने वाले ही समझ सकते हैं। पहले-पहले उसमें कोई रस नहीं टपकता है । वह नमक बिना के भोजन जैसा है । उसका मानन्द परिपक्व अवस्था में प्राता है। शिक्षण के प्रन्त तक धैर्य को टिकाये रखना बहुत भारी पड़ता है । कुछ व्यक्ति शैशव में हताश हो जाते हैं और कुछ मध्य में । जिनकी धृति ग्रचल होती है, वही उसके अन्तिम चरण तक पहुँच कर इसकी अनुभूति कर सकता है।
दुर्बलता मानव का स्वभाव नहीं, विभाव है। मनुष्य उसे स्वभाव मान लेता है, यह भ्रान्ति है। इसका कारण है मोह और प्रज्ञान प्राचार्य मोह और प्रज्ञान को मिटाने के लिए सतत जागृत रहते हैं। वे मनोवैज्ञानिक ढंग से शिष्य की अभिरुचि का अध्ययन करते हैं और उसके धैर्य को टिकाये रखने का प्रयास भी।
सबके सब इसमें उत्तीर्ण हों, यह असम्भव है, लेकिन कुछ हताश व्यक्ति फिर से प्रोत्साहित हो जाते हैं। जो न होते हैं उनके लिए शेष अनुताप रहता है।
प्राचार और विचार दोनों गतिमान रहें, अतः विविध प्रयोग नई चेतना को जागृत करते रहते हैं। विचार और लाचार का अपना क्षेत्र अलग है। ये प्रभिन्न भी हो सकते हैं। आचार्यश्री दोनों का प्रकर्ष चाहते हैं । श्राचार स्वयं के लिए है जबकि विचार दोनों के लिए। जनता पर विचारों का प्रभाव होता है। उसके लिए विचारवान् और विद्वान् होना भी आवश्यक है। दोनों की सह-प्रगति एक चामत्कारिक योग है।
आचार्यश्री का उत्तरदायित्व और तपस्या दोनों सफल है। वे इससे संतुष्ट भी है और नहीं भी संतुष्टि का कारण है --जिन सफलताओ के दर्शन पहले नहीं हुए, उनके दर्शन आपके शासनकाल में हुए, होते हैं और होते रहेंगे । असंतोष अपूर्ण का है। पूर्णता के बिना संतुष्टि कैसे पाये ? उनकी सान्तरिक प्रभिलाषा पूर्णता के शिखर पर पहुंचने की है। प्रगति का द्वार पूर्णता के प्रभाव में सदा खुला रहता है। अपूर्ण को पूर्ण मानने का अर्थ है, प्रगति के पथ को रोक देना। 'प्रगति शिखर पर चढ़ती जाये' यह जिन का उद्घोष हैं। संघ और संघपति पूर्णता के लिए कटिबद्ध है। दोनों का तादातम्प सम्बन्ध है। वे उसमें प्राण फुंकते है और संघ विकास के पथ में प्रतिक्षण मगनर होता रहता है। शासकी कुशलता संघ को सकुशल बनाने में है। उसकी सक्रियता और निष्क्रियता उन पर अवलम्बित रहती है। आचार्यश्री का संघ प्राचार और विचार के क्षेत्र में आज प्रमुख है । यह ग्रापकी कुशल शासकता का सुफल है। हम चाहते हैं कि आचार्यप्रवर अपनी धमाप्य शक्ति के द्वारा प्राचार और विचार की कड़ी को सर्वदा क्षण बनाते रहें।
श्रमरों का संसार
मुनिश्री गुलाबचन्द
देव ! सृष्टि के व्याधि- हलाहल की घूँटे पी। दूर क्षितिज तक श्रमरों का संसार बसादो ।
छलना की संसृति व्यवहृति में पलती प्रतिदिन, स्वप्निल कलना स्पष्ट नहीं विष्टि कहीं है, पग-पग पर है भ्रान्ति भीस्ता व्यवहित मानस, इतरेतर आकृष्ट किन्तु संश्लिष्ट नहीं है । अव व्यवधान समाहित हो सब सहज वृत्ति से, ऐसा शुभ सौहार्द भरा संसार बसा दो ।