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अध्याय ]
अनुशासक, साहित्यकार माम्बोलम संचालक
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सं० १९६३) में प्राचार्य चुने गए और तब से अब तक, पच्चीस वर्षों से, अपने इस पद के उत्तरदायित्व तथा कर्तव्यों को बड़ी योग्यता से पूरा कर रहे हैं। इनके साधु तथा साध्वी शिष्य-मण्डल की संख्या सात सौ के लगभग है और अनुयायी श्रावक-श्राविकामों की संख्या भी बड़ी है। समाम साधु-साध्वियों के अनुशासन और समस्त तेरापंथ की धार्मिक प्रवृत्तियों का संचालन माप करते हैं । पाज जबकि समस्त देश में राजनैतिक दलों, मंत्री-मण्डलों, दफ्तरों और कालेजों तथा विश्वविद्यालयों में अनुशासन हीनता या अनुशासन कम होने की बात देख-सुन रहे हैं, तब क्या यह बात कम माश्चर्य की है कि उनके शासन के विरुद्ध कहीं कोई प्रावाज सुनाई नहीं देती। इस पद को जन-समाज में इतनी सुन्दरता से चलाने का श्रेय जैन तेरापंथी समाज को ही है। ऐसी व्यवस्था जैन समाज के दूसरे सम्प्रदायों में है ही नहीं,भारत के दूसरे सम्प्रायों में भी नहीं है। साधुत्व के साथ-साथ प्रेमपूर्ण शासकत्व के इस सम्मिलन से भाज के शासक बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने प्राधीन साधु-साध्वियों के शिक्षण, प्रशिक्षण, ज्ञानवर्द्धन तथा उनकी गुप्त योग्यताओं को उभारने में वे कितने दत्तचित्त तथा प्रयत्नशील हैं, इसका मुझे कुछ ज्ञान है । सन् १६५१ को दिन के दो बजे मैं पानीपत धर्मशाला में उनसे मिलने गया
और तब मैंने देखा कि वे अपने कुछ शिष्यों को संस्कृत ग्रंथ पढ़ा रहे थे। मैं यह देखकर चकित रह गया। मैंने उन्हें प्रातः चार बजे से रात के नौ-दस बजे तक भिन्न-भिन्न कार्यों में व्यस्त देखा है और यह दिनचर्या एक-दो दिन की नहीं, बल्कि नित्य की है। काम करने की इतनी अथाह शक्ति का कारण उनकी लगन समाज, धर्म तथा देश के लिए कुछ कर गुजरने की तीव्र इच्छा ही हो सकती है।
जैन-समाज अपने विपुल साहित्य तथा कला-प्रेम के लिए प्रसिद्ध है । पर मानना पड़ेगा कि गत दो-चार मौ वर्षों में इस प्रवृत्ति में कमी ही आई है। किन्तु प्राचार्य तुलसी ने राजस्थान के अपने गृहस्थ अनुयायियों तथा साधु-साध्वियों में साहित्य-पठन, साहित्य-सर्जन और कला की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है। उनके कई शिष्य आशुकवि, अच्छे वक्ता, लेखक, विचारक तथा चिन्तक हैं । अवधान या स्मृति के धनी भी कई साधु हैं और ये सब काम या इन प्रवृत्तियों को प्रोत्माहन देने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे इन बातों में स्वयं रुचि हो, जो स्वयं इन गुणों से विभूषित हो। और ये साधु इन प्रवृत्तियों से समाज, साहित्य तथा कलाओं के लिए प्रशंसनीय योगदान दे रहे हैं।
और अब अन्त में उनके महत्वपूर्ण प्रान्दोलन 'अणुदत-अान्दोलन' के संचालक के सम्बन्ध में लिखना चाहूँगा । अणुव्रतों की कल्पना पूर्णतया जैन कल्पना है और वह गृहस्थों के वास्ते है। छोटे रूप में अहिंसा सत्य, चोरी न करने, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य को पालन करना ही अणुव्रत है । वे विभाज्य नहीं हैं. सबको पालन करना पड़ता है। पर
आज के युग में जब मानव व्रतों, बन्धनों तथा नियमों से दूर भागता है, तब उसे प्रणवतों की बात कह कर उसे व्रतों में स्थिर करना है। इसलिए प्राचार्यश्री ने इनके बहुत से भेद-प्रभेद करके उन्हें प्राज की स्थिति के अनुकूल बनाकर देश की करोड़ों जनता तथा विदेशों के रहने वालों के सामने नैतिक उत्थान के लिए रखा है। अपने-अापको तथा अपने सैकड़ों शिष्य तथा शिष्यामों को उसकी सफलता के लिए आन्दोलन में लगा दिया है। इस आन्दोलन की तुलना प्राचार्य विनोबा के 'भूमिदान प्रान्दोलन' तथा अमरीका वालों के 'नैतिक पुनरुत्थान प्रान्दोलन' (Moral Re-armament Movement) मे की जा सकती है। मुझे मालूम हुअा है कि भारत के बुद्धिवादी तथा पत्रकार और राजनीतिज्ञ इसे शंका की दृष्टि से देखते थे, कुछ को प्राज भी शंका है, पर यह प्राचार्यश्री के सतत प्रयत्न का फल है कि यह आन्दोलन पाज लोकप्रिय बन गया है। इस पान्दोलन की सफलता समय लेगी और इससे देश का लाभ ही होगा। पर इस आन्दोलन को स्थायी बनाने के लिए इसके संचालकों को इसके संचालन-प्रबन्ध को किसी महान् संस्था के अधीन करना होगा, जैसे कि गांधीजी अपनी प्रवृत्तियों को संस्था-पाधीन कर देते थे। पर यह दूसरी बात है कि इस आन्दोलन के संचालक के रूप में आपने अपने सक्रिय तथा रचनात्मक कल्पनाशील व्यक्ति होने का परिचय दिया है।।
प्राचार्यजी अभी पचास के इधर ही हैं । और यह प्राशा या कामना करना ठीक ही है कि प्रागामी पचास वर्षों में उनसे समाज, देश तथा धर्म को अत्यधिक लाभ होगा।