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अनुशासक, साहित्यकार व आन्दोलन-संचालक
श्री माईदयाल जैन, बी० ए० (मानर्स), बी० टी०
इस युग को ज्ञान-विज्ञान का युग कहते हैं और पाज के साधारण से शिक्षित स्त्री-पुरुष का यह दावा है कि वह सु-सूचित (Well-informed) भी है, पर वास्तविकता इसके विपरीत ही है। इस बात. का मुझे तब पता लगा जबकि अप्रैल सन् १९५० में प्राचार्यश्री तुलसी अपनी शिष्य-मण्डली सहित दिल्ली पधारे और मैंने उनके आने की बात जैन जनता से सुनी। वे बातें विपक्षीय पालोचना से पूर्ण थी। पर मैं मानं कि जैन-समाज की प्रवृत्तियों में तीस वर्ष तक भाग लेने पर भी मैंने श्वेताम्बर तेरापंथ या प्राचार्यश्री तुलसी का नाम नहीं सुना था। उनके सम्बन्ध में कुछ ज्ञान न था । इस प्रज्ञान से मुझे दुःख ही हुआ।
__और यदि मैं यहाँ यह कह दूं कि जैन समाज के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय वालों में आज भी इतनी विलगता है कि वे एक-दूसरे के बारे में बहुत कम जानते हैं, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। हमारे ज्ञान की यही स्थिति दूसरे धर्मों के सम्बन्ध में है। यह है हमारे ज्ञान की सीमा ! इस स्थिति को बदलने के लिए परस्पर अधिक मेल-जोल बढ़ाना होगा।
और मैं ठहरा उन गुधारक, बुद्धिवादी तथा लेखक । पर श्रद्धा, धर्म-प्रेम तथा जिज्ञासा की मुझमें न तब कमी थी, न प्रब है। इसलिए मैं उनके भाषण में गया। पास ही बैठा-बिल्कुल अनजान-सा, प्रशात-सा। उनके भाषण की ओर तो मेरा ध्यान था ही, पर मेरी प्रोखें-पनी आँखें--उनके व्यक्तित्व तथा उनके हृदय को जाँचने-पड़तालने की कोशिश कर रही थीं।
उनके तेजस्वी चेहरे, सुर्गाठत गौर वदन, मँझले कद और आकर्षक चुम्बकीय व्यक्तित्व और उनके विद्वत्तापूर्ण सन्तुलित तथा संयत भाषण की मेरे मन पर अच्छी छाप पड़ी । मैं निराश नहीं हुआ, बल्कि उनकी तरफ खिचा और उनसे फिर मिलने की तीव्र अभिलाषा लेकर घर लौटा।
यह थी मेरी उनसे पहली भेट---साक्षात्, पर मौन ; या यों कहिए कि यह था उनका प्रथम दर्शन ।
और तब से माज तक तो मुझे उनसे दिल्ली, हिसार, पानीपत तथा सोनीपत मे कई बार मिलने का मौभाग्य प्राप्त हुआ है। उनमे बात हुई हैं, उन्हें पास में देखा भी है। उनके कई शिष्य-साधुओं मे मेरा व्यक्तिगत गहरा परिचय है और उनका तथा उनके योग्य विद्वान् मुनियों द्वारा रचित बहुत-मा साहित्य पढ़ा है। उनके द्वारा संचालित अणुव्रतआन्दोलन को सब रूपों में मैंने देखा है, उसकी सराहना भी सुनी है और परोक्ष में उस आन्दोलन की पालोचना, जनअजैन दोनों से सुनी है । जैसे राष्ट्रपति आदि की प्राचार-सीमाएं हैं, वैसे जैन माधु तथा पट्टधर प्राचार्य के पद के अनुसार उन्हें कुछ प्राचार-मर्यादाएं निभानी होती है और उन सीमाओं में रह कर वे प्रशंसनीय काम कर रहे हैं। इसलिए उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ी है। उनके महत्त्व का मैं कायल हुअा हूँ और मैं उनको जैन समाज और देश की गौरवपूर्ण, महान् विभूति मानता हूँ।
मैं उनके जीनव को इन तीन पहलुओं से देखता हूँ-१. जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के पट्टधर आचार्य, २. कलाप्रेमी तथा साहित्य-सेवी और ३. प्रणवत-आन्दोलन के प्रवर्तक तथा संचालक। किसी महात्मा के व्यक्तित्व को अलग बाँटना कठिन है। क्योंकि वह तो एक ही है, पर विचार करने के लिए इस पद्धति में प्रासानी रहती है।
माचार्यश्री तुलसी ग्यारह वर्ष की बाल्यावस्था में दीक्षा लेकर जैन साधु हुए और ग्यारह वर्ष तपस्या, साधु जीवन तथा कठोर प्रशिक्षण के बाद और अपनी योग्यता पर अपने गुरु-प्राचार्य के द्वारा बाईस वर्ष की आयु में (वि०.