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१५८ ] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन पन्थ
[ प्रथम वे सबके हित का चिन्तन करते हैं और समाज-सेवा उनकी साधना का मुख्य अंग है।
गांधीजी कहा करते थे कि समाज की इकाई मनुष्य है और यदि मनुष्य का जीवन शुद्ध हो जाए तो समाज अपने-आप मुधर जायेगा। इसलिए उनका ओर हमेशा मानव की शुचिता पर रहता था। यही बात प्राचार्यश्री तुलसी के साथ है । वे बार-बार कहते हैं कि हर आदमी को अपनी ओर देखना चाहिए, अपनी दुर्बलतामों को जीतना चाहिए। वर्तमान युग की प्रशान्ति को देख कर एक बार एक छात्र ने उनसे पूछा-'दुनिया में शान्ति कब होगी?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया--- "जिस दिन मनुष्य में मनुष्यता या जायेगी।' अपने एक प्रवचन में उन्होंने कहा-'रोटी, मकान, कपड़े की समस्या से अधिक महत्त्वपूर्ण समस्या मानव में मानवता के प्रभाव की है।' मानव-हित के चिन्तक
मानव-हित के चिन्तक के लिए आवश्यक है कि वह मानव की समस्याओं से परिचित रहे। प्राचार्यश्री उस दिशा में अत्यन्त सजग हैं। भारतीय समाज के सामने क्या-क्या कठिनाइयाँ हैं, राष्ट्र किस संकट मे गुजर रहा है, अन्तर्राष्ट्रीय जगत के क्या-क्या मुख्य मसले हैं, इनकी जानकारी उन्हें रहती है। वस्तुतः बचपन से ही उनका झुकाव अध्ययन
और स्वाध्याय की ओर रहा है और जीवन को वे सदा खुली मांखों देखने के अभिलाषी रहे हैं। अपने उसी अभ्यास के कारण आज उनकी दृष्टि बहुत ही जागरूक रहती है और कोई भी छोटी-बड़ी समस्या उनकी तेज आँखों से बची नहीं रहती।
जैन-धर्मावलम्बी होने के कारण अहिमा पर उनका विश्वास होना स्वाभाविक है। लेकिन मानवता के प्रेमी के नाते उनका वह विश्वास उनके जीवन की श्वास बन गया है। हिमा के युग में लोग जब उनसे कहते हैं कि प्राणविक अस्त्रों के सामने अहिंसा कैसे सफल हो सकती है तो वे माफ जवाब देते हैं, "लोगों का ऐसा कहना उनका मानसिक भ्रम है। आज तक मानव-जाति ने एक स्वर मे जैसा हिंसा का प्रचार किया है, या यदि अहिमा का करती नो स्वर्ग धरती पर उतर पाता । ऐसा नहीं किया गया, फिर अहिंसा की सफलता में मन्देह क्यों?"
प्रागे ये कहते हैं-"विश्व शान्ति के लिए प्रणबम प्रावश्यक है, ऐसा कहने वालों ने यह नहीं सोचा कि यदि वह उनके शत्रु के पास होता तो।"
धर्म पुरुष
पानार्यश्री की भूमिका मुन्यतः आध्यात्मिक है । ये धर्म-पुरुष है । धर्म के प्रति आज की बढती विमुखता को देख कर वे कहते हैं, "धर्म मे कुछ लोग चिढ़ते हैं, किन्तु वे भूल पर हैं। धर्म के नाम पर फैली हुई बगइयो को मिटाना आवश्यक है, न कि धर्म को। धर्म जन-कल्याण का एकमात्र माधन है।"
इसी बात को पागे समझाते हुए वे कहते हैं-"जो लोग धर्म त्याग देने की बात कहते हैं, वे अनुचित करते हैं। एक आदमी गन्दे विषैले पानी से बीमार हो गया। अब वह प्रचार करने लगा कि पानी मत पीओ, पानी पीने से बीमारी होती है। क्या यह उचित है ? उचित यह होता कि वह अपनी भूल को पकड़ लेता और गन्दा पानी न पीने को कहना। धर्म का त्याग करने की बात कहने वालों को चाहिए कि वे जनता को धर्म के नाम पर फैले हुए विकारों को छोड़ना सिग्वाएं, धर्म छोड़ने की सीख न दें।"
धर्म क्या है, इसकी बड़े सरल सुबोध ढंग से उन्होंने इन शब्दों में व्याख्या की है-"धर्म क्या है ? सत्य की खोज. आत्मा की जानकारी, अपने स्वरूप की पहचान, यही तो धर्म है। सही अर्थ मे यदि धर्म है तो वह यह नहीं सिखलाता कि मनुष्य मनूष्य से लड़े। धर्म नहीं सिखलाता कि पूंजी के मापदण्ड से मनुष्य छोटा या बड़ा है। धर्म नहीं सिखलाता कि कोई किसी का शोषण करे । धर्म यह भी नहीं कहता कि बाह्य प्राडम्बर अपना कर मनुष्य अपनी चेतना को खो बैठे। किसी के प्रति दुर्भावना रखना भी यदि धर्म में शुमार हो तो वह धर्म किस काम का। वैसे धर्म मे कोसों दूर रहना बुद्धिमतापूर्ण होगा।"