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मानवता के उन्नायक
श्री यशपाल जैन सम्पावक-जीवन साहित्य
आचार्यश्री तुलसी का नाम मैंने बहुत दिनों से सुन रम्य था, लेकिन उनसे पहले-पहल साक्षात्कार उस समय हुमा जबकि वे प्रथम बार दिल्ली प्राये थे और कुछ दिन राजधानी में ठहरे थे। उनके साथ उनके अन्तेवासी साधु-माध्वियों का विशाल समुदाय था और देश के विभिन्न भागों से उनके सम्प्रदाय के लोग भी बहुत बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे। विभिन्न पालोचनाएं
प्राचार्यश्री को लेकर जैन समाज तथा कुछ जैनेनर लोगों में उस समय तरह-तरह की बात कही जाती थी। कुछ लोग कहते थे कि वह बहुत ही सच्चे और लगन के प्रादमी हैं और धर्म एवं समाज की सेवा दिल से कर रहे हैं। हम के विपरीत कुछ लोगों का कहना था कि उनमें नाम की वडी भूख है और वह जो कुछ कर रहे हैं, उसके पीछे तेरापंथी सम्प्रदाय के प्रचार की तीव्र लालमा है। मैं दोनों पक्षों की बातें सुनता था। उन सबको सुन-सुन कर मेरे मन पर कुछ अजीब-सा चित्र बना। मैं उनमे मिलना टालता रहा।
अचानक एक दिन किसी ने घर पाकर सुनना दी कि प्राचार्यश्री हमारे मुहल्ले में आये हुए हैं और मेरी याद कर रहे हैं। मेरी याद ? मुझे विस्मय हुमा । मैं गया। उनके चारों ओर बड़ी भीड़ थी और लोग उनके चरण स्पर्श करने के लिए एक-दूसरे को ठेल कर आगे आने का प्रयत्न कर रहे थे। जैसे-तैसे उस भीड़ में से रास्ता बना कर मुझे प्राचार्यश्री जी के पास ले जाया गया। उस भीड़-भाड़ और कोलाहल में ज्यादा बातचीत होना तो कहाँ सम्भव था, लेकिन चर्चा मे अधिक जिस चीज की मेरे दिल पर छाप पड़ी, वह था प्राचार्यश्री का सजीव व्यक्तित्व, मधुर व्यवहार और उन्मुक्तता। हम लोग पहली बार मिले थे, लेकिन ऐसा लगा मानो हमारा पारस्परिक परिचय बहुत पुराना हो।।
उसके उपरान्त प्राचार्यश्री में अनेक बार मिलना हुआ। मिलना ही नहीं, उनसे दिल खोल कर चर्चाएं करने के अवसर भी प्राप्त हुए। ज्यों-ज्यों मैं उन्हें नजदीक से देखता गया, उनके विचारों से अवगत होता गया, उनके प्रति मेरा अनुराग बढ़ता गया । हमारे देश में साधु-सन्तों की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। प्राज भी साधु लाखों की संख्या में विद्यमान हैं लेकिन जो सच्चे साधु हैं, उनमें से अधिकांश निवृत्ति-मार्गी हैं । वे दुनिया से बचते हैं और अपनी आत्मिक उन्नति के लिए जन-रव से दूर निर्जन स्थान में जाकर बसते हैं । मात्म-कल्याण की उनकी भावना और एकान्त में उनकी तपस्या निसन्देह सराहनीय है, पर मुझे लगता है कि समाज को जो प्रत्यक्ष लाभ उनसे मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, "मेरे लिए मुक्ति सब कुछ त्याग देने में नहीं है। सृष्टि-कर्ता ने मुझे अगणित बन्धनों में दुनिया के साथ बांध रखा है।"
प्राचार्यश्री तुलसी इसी मान्यता के पोषक हैं। यद्यपि उनके सामने त्याग का ऊँचा प्रादर्श रहता है और वे उसकी पोर उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहते हैं, तथापि वे समाज और उसके सुख-दुःख के बीच रहते हैं और उनका महनिश प्रयत्न रहता है कि मानव का नैतिक स्तर ऊँचा उठे, मानव सुखी हो और समूची मानव-जाति मिल-जल कर प्रेम से रहे। वह एक सम्प्रदाय-विशेष के प्राचार्य अवश्य हैं। लेकिन उनकी दष्टि और उनकी करुणा संकीर्ण परिधि से प्राबूत नहीं है।