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अध्याय 1
तुलसी पापा ले 'परवति' का नब सम्मेश यह अनाचार की प्राज रहा दीवार तोड जागरण के लिए नीति-भीति को रहा जोड़ प्रज्ञान तिमिर को चीर, ज्ञान का भर प्रकाश कर रहा प्राज वह मानव का अन्तर्विकास ।
करता न कभी प्रामर्ष-कलह की एक बात या धर्मभेद को इसके सम्मुख क्या विसात ? बस एक लक्ष्य इसका-'जीवन मंगलमय हो
अन्याय-अनय प्रौ' कल्मषका क्षण में लय हो ।' हो गये प्राज तुम हो अतिशय आचरण-भ्रष्ट कर रहे आज तुम स्वयं प्रात्म-बल को विनष्ट ; अपनी आँखें खोलो, यदि तुम कुछ सको देख तो देखो अपने धर्मदूत की ज्योति-रेख ।
व्रत करते हैं कुछ लोग स्वार्थ की सिद्धि-हेतु व्रत करते हैं कुछ लोग, बनाने स्वर्ग-सेतु ; लेकिन यह 'अणुव्रत' कैसा जिसमें नहीं स्वार्थ निष्काम कर्म यह है नैतिकता प्रचारार्थ ।