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भगवान महावीर और बुद्ध की परम्परा में
मुनिश्री सुखलालजी
भगवान् महावीर और बुद्ध का नाम उन अत्यल्प व्यक्तियों में से है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को एक नई चेतना दी है। वैसे रत्नगर्भा वसुन्धरा पर न जाने कितने महावीर और बुद्ध उतरे होंगे, पर उनकी अपनी यह एक विशेषता रही है कि अपने पीछे वे एक पुष्ट-परम्परा-प्रवाह को छोड़ गये हैं। निश्चय ही परम्परा में अविरल चैतन्य नही रहता। कभी-कभी उसे मन्दता का प्रकोप भी सहना पड़ता है, पर सततवाहिता की यह एक सहज उपलब्धि है कि उसमें समय-समय पर कुछ ऐसे उन्मेष पाते रहते हैं जो उसकी अतीत की मन्दता को भी कुछ होने से बचा देते है। यही कारण है कि ढाई हजार वर्षों के बाद भी हम महावीर और बुद्ध को भूल नहीं पाये हैं। श्रमण-संस्कृति के क्षितिज पर आज एक ऐसे तेज-पुज का उदय हो रहा है, जो भगवान् महावीर और बुद्ध को एक बार पुनः अभिव्यक्ति देने का प्रयास कर रहा है।
हमारा संसार प्रतिध्वनियों का एक स्रोत है। युग-युग में यहाँ सदा कोई-न-कोई महामहिम मानव प्रतिध्वनित होता ही रहता है। पर भारत की प्रतिध्वनि-पंक्ति में भगवान् महावीर और बुद्ध का विशेष प्रभाव रहा है । उन्होंने न जाने कितने महापुरुषों को पैदा कर अध्यात्म के अंकुर को प्रकाशसिक्त किया है। निश्चय ही भगवान महावीर और बुद्ध भी अपने आपमें किसी ध्वनि की ही प्रतिध्वनि रहे होंगे। पर उनकी प्रतिध्वनि अपने आपमें इतनी दूरगामी थी कि वर्तमान में भी हम उसे प्राचार्यश्री तुलसी के रूप में सुन रहे हैं।
महावीर और बुद्ध आज हमारे बीच साहित्य के रूप में उपस्थित है। यद्यपि इतिहास की यह दुर्बलता है कि वह सब स्थितियों को अपने में प्रतिबिम्बित नहीं कर पाता। पर इसके बाद भी प्राज उनके विषय में जो कुछ अवशेष रह गया है, वह उनके महत्त्व को अच्छी प्रकार में व्यक्त कर देता है। कालक्रम मे उन पर बहुत से प्रावरण भी चढाये गये हैं, इसलिए हमें उनका वास्तविक स्वरूप समझने में कठिनाई भी हो सकती है। पर भगवान् के महत्त्व को भक्त ही बढ़ाता है, यह भी हमें भूल नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार कुल मिला कर उनका स्वरूप जो हमारे सामने है, वह अत्यन्त प्राकर्षक है।
अपने समय में महावीर और बुद्ध को कितना महत्त्व मिला था, यह एक विवादास्पद विषय है । उस समय भी एक साथ छः तीर्थंकरों का अस्तित्व जैन और बौद्ध दोनों साहित्य स्वीकार करते हैं। पर परिस्थिति के आघातप्रत्याघातों से बच कर हम तक केवल वे दो ही पहुंच पाये हैं । यह तथ्य पूर्ण अनावृत है; अतः उनके साहित्य को पढ़ कर प्राचार्यश्री तुलसी के जीवन पर दृष्टिपात किया जाये तो बहुत-सी घटनाएं उनमें एक अलम्य-साम्य रेखा हमारे सामने खींच देती हैं । अतः कुछ घटनामों को मैं यहाँ अंकित करना चाहता हूँ, जिनको मैंने अपनी प्रांखों से देखा है। क्योंकि विचारों का हिम ही पिघल कर घटनाओं के सलिल-प्रवाह के रूप में हमारे सामने बहता है । निश्चय ही प्राचार्यश्री तुलसी के सामने वे ही आदर्श हैं जो श्रमण संस्कृति के उद्भावकों के सामने रहे थे। अतः विचार-साम्य तो उनमें होगा ही, पर प्राचार्यश्री ने उन पर अपने अपनत्व की जो मुद्रा लगाई है, वह निश्चय ही उनके अपने व्यक्तिगत व्यवहार की देन है।
महावीर और बुद्ध के जीवन को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि हम किसी ऐसी मूर्ति के सामने बैठे हैं जो चारों मोर से श्रद्धामय है। सचमुच श्रद्धा जीवन का एक विशेष गुण है। कुछ लोग उसे अन्धी कहकर उससे परहेज कर सकते