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अचार्यश्री तुलसी मेरी दृष्टि में
सेवाभावी मुनिश्री चम्पालालजी
प्राचार्यश्रा तुलसी निःसन्देह एक महापुरुष हैं। महापुरुष कोई जन्म से नहीं होता, वंश-परम्परा, समाज या स्थान उसे महान् नहीं बनाता। व्यक्ति अपनी चारित्रिक प्रवृत्ति से ही महान होता है। उसकी प्रत्येक क्रिया एक प्रविच्छिन्न सत्य से प्रोत-प्रोत होती है, किन्तु उस क्रिया का प्रयोग होता है-सर्वजन हिताय । हित का जहाँ तक प्रश्न है, वह मनोनीत नहीं होता। उसे सीमाओं की परिधि में भी नहीं बाँधा जा सकता और जो रेखांकित होता है, सम्भवतः वह विशुद्ध हित भी न हो। हित सदा उन्मुक्त रहा है। उसकी कसौटी मात्म-भावना है। जहाँ निविवाद निर्ममत्व, निम्बार्थना हो, वही प्रसंदिग्ध क्रिया हित है। सीधे शब्दों में जो क्रिया जीवन नर्मल्य का प्रतीक है, औरों को जिससे प्रात्म-संबल मिले; वही सर्वोत्तम हित है। प्राचार्यश्री तुलसी मर्वजनहिताय बढ़ रहे हैं। उनका वह बहमुग्बी व्यक्तित्व सबके सामने है।
____ मुझे प्राज भी वे दिन याद हैं, जिन दिनों प्राचार्यश्री तुलसी का जन्म हुआ था। उस समय मेरी प्रायु छः वर्ष को पार कर चुकी थी। अपने नन्हे भाई को देखने के लिए मन में तीव्र उत्सुकता थी। जन्म के तीसरे ही दिन मैंने सवगे पहले तुलसी को देखा । एक पीत वस्त्र में लिपटा हुआ गुलाबी फलों का गुल्छा-सा, सिंदूर ढालते मे नन्हे-नन्हे पर, खिलना हुप्रा चेहरा, एक प्रभा-मी सामने प्राई। हर्ष-विभोर मन नाच उठा । जी चाहता था कि उसे गोद में ले लं, पर नही मिना । नामकरण के अवसर पर घर में एक नवीन चहल-पहल थी। हम तलमी, तुलसी पुकारने लगे।
तुलसी मुझे बहुत भाता। मैं नहीं भून रहा है, जब तुलमी दो वर्ष का हुआ होगा, गडाली चलने और बड़ी करने ही लगा था: न जाने किस कारण से, प्रापसी खीचातान मे या गिर जाने में उसका एक पर चढ़ गया। तुलसी बहुत रोया, बहुत रोया । डाक्टर को बुलाया, वैद्यों को बुलाया, मयान को बुलाया, पर पर नहीं उतग।
हमारे मामा श्री नेमीचन्दजी कोठारी अच्छे अनुभवी व्यक्ति थे। मैं उन्हें बुला लाया। मां ने कहा-भाई तुलमी का पर"। अब मामाजी ने लोहे का एक भारी-सा कड़ा तुलसी के पैरों में पहना दिया। उसको गोदी में लिये लिये रखना होता। सारी-सारी रात माताजी खड़ी-खड़ी निकालती। धीरे-धीरे कुछ दिनों में पैर बोझ के खिचाव से अपने पाप पूर्ववत हो गया। उन दिनों जो मानसिक कष्ट होता, वह अनुभव की ही बात है। तलमी को रोता देख मै रोता तो नहीं, पर बाकी कुछ नहीं रहता। मैंने भी उन दिनों घण्टों घण्टों तक तुलसी को गोद में रखा।
मुझमे छोटा भाई सागर बड़ा ही तूफानी था। जब तब वह तुलसी को तंग करता, पर तुलसी नहीं झलकता। बहुधा तुलसी की ओर से मैं डटता और मागर के तूफानों से बचाता। कभी-कभी तो तुलसी के लिए मुझे, झड़प भी करनी होती। प्रायः तुलसी बच्चों में नहीं खेलता। एकान्त-प्रियता और अपने प्रापमें व्यस्त रहना उसका सहभावी धर्म-सा था। बाल्य-चपलता जो सहज है और होनी भी चाहिए, पर तुलसी की चपलता उससे सर्वथा भिन्न थी। उन दिनों पुस्तक बहत कम थीं। प्रायः विद्यार्थी स्लेट (पाटी) बस्ता ही रखते थे। तुलसी वरते का शौकीन था। मैं उसे बहधा छोटे-छोटे बरतों के टकडे दिया करता और तुलसी दिन भर उन टुकड़ों मे आँगन में उल्टी-सीधी लाइनें खीचते रहता या एकान्त पा अपने आप गुनगुनाना ही उसकी चपलता थी। निष्कारण न कभी हेमना, न रोना और न बोलना तुलमी का स्वभाब भा।
एक दिन तुलसी बरते से कान कुरेद रहा था। किसी अचानक धक्के मे बरता अन्दर टूट गया। सुनार के यहाँ