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तुम ऐसे एक निरंजन.
भी कन्हैयालाल सेठिया
तुम ऐसे एक विसर्जन जो सृजन लिये चलते हो!
कब घन अपनी बूंदों से अपनी ही तृषा बुझाता? कब तरु अपने सुमनों से
अपना शृङ्गार सजाता? तुम ऐसे एक समर्पण जो ग्रहण लिये चलते हो !
देते हो दान विभा का लेते हो जग की ज्वाला, तुम सुधा बांट कर शिव सम पीते हो विष का प्याला,
तुम ऐसे एक निरंजन जो भुवन लिये चलते हो !
तुम महामुक्ति के पंथी बन्धन की महत्ता कहते, तुम प्रात्म रूप अपने में पर देह रूप से रहते ।
तुम ऐसे एक विचक्षण जो द्वैत बने दलते हो !
तुम ऐसे एक विसर्जन . जो सृजन लिये चलते हो.!