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अध्याप] सुधारक तुलसी
[६३ पौर अशोक ने इस सदाचरण को ही राज्य का धर्म बनाया । व्यक्ति का अपने परिवार, अपने पड़ोसी और समाज के प्रति क्या कर्तव्य है, यह अशोक ने पूर्ण रूप से अंकित किया और अहिंसा को शासन-दण्ड बनाया। समाज फिर धर्म-मार्ग की ओर उन्मुख बना। परन्तु इस अवस्था में पुनः परिवर्तन हुअा और सदाचरण की बागडोर फिर ढीली पड़ने लगी। बुद्ध और महावीर के अनुयायी ही उस सच्चे मार्ग से विचलित होने लगे और धर्म के सच्चे तत्त्वों को भूल कर पुनः कर्म-काण्ड में लिप्त हुए। मठों और मन्दिरों के निर्माण, व्रतों और बाहरी लिबास को ही सब कुछ माना गया, जिससे प्रावरण में शिथिलता पायी। समाज ढीला पड़ने लगा और फिर आपसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे। राजनीतिक स्तर पर साम्राज्यों का बनना-बिगड़ना सैनिक बल पर ही आधारित था और देश की एकता को हानि पहुँची। हर्ष के काल में यह भावना उनरोसर और प्रवल होती गई तथा देश पर वाह्य आक्रमण हुए। देश के भीतर युद्धों की परम्परा चल पड़ी और विदेशी धर्म का भी प्रादुर्भाव हुमा । जनसमूह घबड़ा उठा और सच्चे मार्ग को पाने के लिए छटपटा उठा। इस काल में अनेक धर्मसुधारक और नेता देश में अवतरित हुए जिनका उपदेश फिर यही था कि अपना आचरण ठीक करो, भक्ति-मार्ग का अवलम्बन करो और पारस्परिक सहानुभूति, सामंजस्य और सहष्णुिता को बढ़ानो जिसमे मत-मतान्तरों के झगड़ों से ऊपर उठ कर सत्य-मार्ग का आश्रय लिया जाये। अत्याचार से इसी मार्ग द्वारा मुक्ति मिल सकती थी।
शंकराचार्य, रामानुज, रामानन्द, कबीर, नानक, तुलसी, दादू अादि अनेक सुधारक कई सौ वर्षों में होते रहे और समाज को सीधे मार्ग पर चलाने का प्रयत्न करते रहे, जिसमे उस समय के शासन और गजनीनि की कठोरतानों के बावजद हिन्दू-समाज और व्यक्ति शान्ति और आत्म-विश्वास कायम रख सका।
देश पर पुनः एक संकट अठारहवीं शती में पाया और इस बार विदेशी शासन और विदेशी संस्कृति ने एक जोरदार प्राक्रमण किया, जिससे भारतीय समाज और देश के धर्म का पूर्ण अस्तित्व ही नाट प्राय हो गया था। पश्चिग के ईगाई-सम्प्रदाय ने हिन्दुओं को अपने मत में लाने का घोर प्रयन्न किया और इस कार्य में मिशनरी लोगों को शासन मे सर्वविध महायता प्राप्त थी। उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ में देश में अन्धविश्वास, आइम्बरपूर्ण धार्मिक आचरण और शास्त्रयुक्त निगम और पाचरण के प्रति प्रथद्धा बढ़े, जिससे यहाँ के वामी पाश्चात्य धर्म और संस्कृति के महज ही शिकार होने लगे। विशेषतः नई अंग्रेजी शिक्षायुक्त कलकत्ते का नवयुवक-समुदाय तो देश की सभी परम्पराओं, बुरी या भली, सभी का घोर विरोध करने लगा और ईसाई मत या नास्तिकता की ओर अग्रसर हया । इस मर्वग्रासी प्रायोजन से देश और संस्कृति को बचाने का श्रेय राममोहनराय, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द प्रभृति महान् सुधारकों और धर्मोपदेशकों को है, जिन्होंने भारतीय दर्शन और धर्म का शुद्ध रूप बलपूर्वक दर्शाया और उसके प्रति विश्वास और श्रद्धा की पुनःस्थापना की । इन सभी सुधारकों ने सामयिक कुरीतियों और संयमशून्य पद्धतियों का जोरदार खंडन किया और बताया कि उनके लिए शास्त्रों में मोर पुनीत वैदिक धर्म यादि में कोई भी पुष्टि नहीं है। उन्होंने वैदिक हिन्दु धर्ममा पवित्र रूप सामने रखा और उसी का अनुगमन करने का उपदेश दिया। उम धर्म में ग्रावरण पर बल दिया गया; ज्ञान को सर्वोपरि माना गया; और मनुष्य अपने शुभ कर्मों द्वारा अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है, इस तथ्य को बनाया गया। इस प्रकार शाश्वत, सनातन धर्म केवल पाखंड और पोपलीला न होकर बुद्धि सिद्ध (rational) और ममाज के लिए कल्याणकारी है, इस बात को दर्शाया गया। इन सुधारकों के यत्न से देश की संस्कृति जागृत हुई और जन समुदाय में नई चेतना और आत्मविश्वास का विकास हुआ, जिससे राष्ट्रीयता का जन्म हुआ और देश स्वतन्त्रता को प्रोर अग्रसर हुआ।
इस शताब्दी के प्रारम्भ में जिस समय राष्ट्रीय मान्दोलन बढ़ रहा था और हिंसा की प्रवृत्ति प्रबल हो रही थी, उस समय महात्मा गांधी ने उसकी बागडोर सँभाली और आन्दोलन को अहिंसात्मक मार्ग पर चलाया और सत्य व सदाचार पर जोर दिया; क्योंकि इनके बिना स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर भी राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता है। त्याग सत्य का प्रेरक है और सदाचार का प्रणेता । इसी त्याग पर गांधीजी ने बल दिया और सत्याग्रह का मार्ग दिखा कर देश के जनसमुदाय को राष्ट्रहित के लिए त्याग की पोर प्रेरति किया। जहाँ त्याग और सेवा प्रमुख कर्तव्य हैं, वहाँ ऊँच-नीच का भेद, छोटे-बड़े और अफसर-मातहत की संज्ञा का ही लोप हो जाता है और समाज में एकता, समता और सद्-व्यवहार का आधिपत्य हो जाता है। बिना इन गुणों के समावेश के समाज सुमंगठिन नहीं होता। इस महान् तथ्य को महात्मा गांधी