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सूत्रकार भगवदुमास्वामिका बनाया हुआ नहीं है; जिससे लोग इस ग्रंथको उसी दृष्टिसे देखें और वृथा भ्रममें न पड़ें। - प्रथको परीक्षा-दृष्टिसे अवलोकन करनेपर मालूम होता है कि इस ग्रंथका साहित्य बहुतसे ऐसे पद्योंसे बना हुआ है जो दूसरे आचार्योके बनाये हुए सर्वमान्य प्रथोंसे या तो ज्योंके त्यो उठाकर रक्खे गये है या उनमें कुछ थोडासा शब्द-परिवर्तन किया गया है। जो पद्य ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं वे 'उक्त च' या 'उधृत' रूपसे नहीं लिखे गये हैं और न हो सकते है; इसलिए प्रथकर्त्ताने उन्हें अपने ही प्रगट किये हैं। भगवान् उमास्वामि जैसे महान् आचार्य दूसरे आचार्योंके बनाये हुए प्रयोंसे पद्य लेवें और उन्हें अपने नामसे प्रगट करें, यह कभी हो नहीं सकता। यह उनकी योग्यता और पदस्थके विरुद्ध ही नहीं बल्कि महापापका काम है । श्रीसोमदेव आचार्यने साफ तौरसे ऐसे लोगोंको 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है। जैसा कि 'यशस्तिलक' के निम्नलिखित श्लोकसे प्रगट है:____ " कृत्वा कृतीः पूर्वकता पुरस्तात्प्रत्यादर ताः पुनरीक्षमाणः। तथैव जल्पेदथ योऽन्यथा वा सकाव्यचोरोस्तु स पतकी च॥"
लेकिन पाठकोंको यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि इस ग्रंथमें जिन पचोंको ज्योंका त्यों या परिवर्तन करके रक्खा गया है वे अधिकतर उन आचार्योंके बनाये हुए प्रथोंसे लिये गये हैं जो सूत्रकार श्रीउमास्वामिसे अनेक शताब्दियोंके पीछे हुए हैं। वे पद्य, अथके अन्य स्वतंत्र बने हुए पद्योंसे, अपनी शब्दरचना और अर्थगाभीर्यादिके कारण स्वतः भिन्न मालूम पड़ते हैं। और उन मणिमालाओं (प्रथों) का स्मरण कराते हैं जिनसे वे पद्यरत्न लेकर इस प्रथमें गूथे गये हैं। उन पद्यों से कुछ पद्य, नमूनेके तौरपर, यहा पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रगट किये जाते हैं: